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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विश्वावसुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    नि॒वेश॑नः स॒ङ्गम॑नो॒ वसू॑नां॒ विश्वा॑ रू॒पाभिच॑ष्टे॒ शची॑भिः। दे॒वऽइ॑व सवि॒ता स॒त्यध॒र्मेन्द्रो॒ न त॑स्थौ सम॒रे प॑थी॒नाम्॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒वेश॑न॒ इति॑ नि॒ऽवेश॑नः। स॒ङ्गम॑न॒ इति॑ स॒म्ऽगम॑नः। वसू॑नाम्। विश्वा॑। रू॒पा। अ॒भि। च॒ष्टे॒। शची॑भिः। दे॒व इ॒वेति॑ दे॒वःऽइ॑व। स॒वि॒ता। स॒त्यध॒र्मेति॑ स॒त्यऽध॑र्मा। इन्द्रः॑। न। त॒स्थौ॒। स॒म॒र इति॑ सम्ऽअ॒रे। प॒थी॒नाम् ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निवेशनः सङ्गमनो वसुनाँविश्वा रूपाभि चष्टे शचीभिः । देवऽइव सविता सत्यधर्मेन्द्रो न तस्थौ समरे पथीनाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    निवेशन इति निऽवेशनः। सङ्गमन इति सम्ऽगमनः। वसूनाम्। विश्वा। रूपा। अभि। चष्टे। शचीभिः। देव इवेति देवःऽइव। सविता। सत्यधर्मेति सत्यऽधर्मा। इन्द्रः। न। तस्थौ। समर इति सम्ऽअरे। पथीनाम्॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 66
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    भावार्थ - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की ईश्वराने कारणापासून कार्यरूपाने अनेक उपयोगी पदार्थ निर्माण करून सर्वांवर उपकार केलेले आहेत. जसा सूर्य मेघांबरोबर युद्ध करून जगावर उपकार करतो तसे माणसांनी उत्पत्ती विज्ञान जाणून उत्तम क्रिया करून पृथ्वी इत्यादींद्वारे अनेक व्यवहार सिद्ध करून प्रजेला सुखी करावे.

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