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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 64
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - निर्ऋतिर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यस्या॑स्ते घोरऽआ॒सञ्जु॒होम्ये॒षां ब॒न्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय। यां त्वा॒ जनो॒ भूमि॒रिति॑ प्र॒मन्द॑ते॒ निर्ऋ॑तिं त्वा॒हं परि॑ वेद वि॒श्वतः॑॥६४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्याः॑। ते॒। घो॒रे॒। आ॒सन्। जु॒होमि॑। ए॒षाम्। ब॒न्धाना॑म्। अ॒व॒सर्ज॑ना॒येत्य॑व॒ऽसर्ज॑नाय। याम्। त्वा॒। जनः॑। भूमिः॑। इति॑। प्र॒मन्द॑त॒ इति॑ प्र॒ऽमन्द॑ते। निर्ऋ॑ति॒मिति॒ निःऽऋ॑तिम्। त्वा॒। अ॒हम्। परि॑। वे॒द॒। वि॒श्वतः॑ ॥६४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यास्ते घोर आसन्जुहोम्येषाम्बन्धानामवसर्जनाय । यान्त्वा जनो भूमिरिति प्रमन्दते निरृतिं त्वाहम्परि वेद विश्वतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्याः। ते। घोरे। आसन्। जुहोमि। एषाम्। बन्धानाम्। अवसर्जनायेत्यवऽसर्जनाय। याम्। त्वा। जनः। भूमिः। इति। प्रमन्दत इति प्रऽमन्दते। निर्ऋतिमिति निःऽऋतिम्। त्वा। अहम्। परि। वेद। विश्वतः॥६४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 64
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    भावार्थ - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे पती आपल्या आनंदासाठी स्त्रियांचा स्वीकार करतात तसे स्त्रियांनीही पतींचा स्वीकार करावा. गृहस्थाश्रमात पतिव्रता स्त्री व पत्नीव्रत पती हा सुखाचा कोश असतो. बलवान व शुद्ध स्त्रीरूपी भूमी व पुरुषरूपी बीज या दोघांच्या समागमाने उत्तम व विविध प्रकारची संताने झाली तर नेहमी कल्याण होते हे जाणले पाहिजे.

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