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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 14
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत।व॒स॒न्तोऽस्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्मऽइ॒ध्मः श॒रद्ध॒विः॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। पुरु॑षेण। ह॒विषा॑। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। अत॑न्वत ॥ व॒स॒न्तः। अ॒स्य॒। आ॒सी॒त्। आज्य॑म्। ग्री॒ष्मः। इ॒ध्मः। श॒रत्। ह॒विः ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत । वसन्तोस्यासीदाज्यङ्ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। पुरुषेण। हविषा। देवाः। यज्ञम्। अतन्वत॥ वसन्तः। अस्य। आसीत्। आज्यम्। ग्रीष्मः। इध्मः। शरत्। हविः॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়ৎ) যখন (হবিষা) গ্রহণ করিবার যোগ্য (পুরুষেণ) পূর্ণ পরমাত্মা সহ (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (য়জ্ঞম্) মানসজ্ঞানকে (আতন্বত) বিস্তৃত করেন, (অস্য) এই যজ্ঞের (বসন্তঃ) পূর্বাহ্ন কালেই (আজ্যম্) ঘৃত (গ্রীষ্মঃ) মধ্যাহ্ন কাল (ইধ্মঃ) ইন্ধন প্রকাশক এবং (শরৎ) অর্ধ রাত্র (হবিঃ) হোম করিবার যোগ্য পদার্থ (আসীৎ) আছে, এইরকম জানিবে ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- যখন বাহ্য সামগ্রীর অভাবে বিদ্বান্গণ সৃষ্টিকর্ত্তা ঈশ্বরের উপাসনা রূপ মানসজ্ঞান যজ্ঞকে বিস্তৃত করে তখন পূর্বাহ্ন আদি কালই সাধনরূপে কল্পনা করা উচিত ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - য়ৎপুর॑ুষেণ হ॒বিষা॑ দে॒বা য়॒জ্ঞমত॑ন্বত ।
    ব॒স॒ন্তো᳖ऽস্যাসী॒দাজ্যং॑ গ্রী॒ষ্মऽই॒ধ্মঃ শ॒রদ্ধ॒বিঃ ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - য়ৎপুরুষেণেত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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