यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 14
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी उष्णिक्,
स्वरः - ऋषभः
2
अग्ने॒ त्वꣳ सु जा॑गृहि व॒यꣳ सु म॑न्दिषीमहि। रक्षा॑ णो॒ऽअप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ नः॒ पुन॑स्कृधि॥१४॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। त्वम्। सु। जा॒गृ॒हि॒। व॒यम्। सु। म॒न्दि॒षी॒म॒हि॒। रक्ष॑। नः॒। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। प्र॒बुध॒ इति॑ प्र॒ऽबुधे॑। न॒। पु॒न॒रिति॒ पुनः॑। कृ॒धि॒ ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने त्वँ सु जागृहि वयँ सु मन्दिषीमहि । रक्षा णो अप्रयुच्छन्प्रबुधे नः पुनस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। त्वम्। सु। जागृहि। वयम्। सु। मन्दिषीमहि। रक्ष। नः। अप्रयुच्छन्नित्यप्रऽयुच्छन्। प्रबुध इति प्रऽबुधे। न। पुनरिति पुनः। कृधि॥१४॥
विषय - मैं सानन्द सोऊँ—प्रभु जागें
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में आङ्गिरस ने निश्चय किया कि ‘पृथिवीम् आविशत’ हे सोमकणो! तुम मेरे शरीर में ही व्याप्त होओ। दिन में तो यह आङ्गिरस अपने निश्चय को अपने संकल्पबल व प्रयत्न से कार्यरूप में ले-आता है। रात्रि में भी वह अपनी शक्ति की रक्षा कर सके, अतः वह प्रभु से प्रार्थना करता है कि २. हे ( अग्ने ) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( त्वं सुजागृहि ) = आप उत्तमता से खूब जागरित रहिए। ( वयम् ) = हम आपकी बनाई हुई इस शरीर की व्यवस्था के अनुसार, ( सुमन्दिषीमहि ) = दिनभर के श्रम के बाद आनन्दपूर्वक [ सु ] सोते हैं। हम जब इस रमयित्री रात्रि में निन्द्रा का आनन्द लें, उस समय आप जागरित हों, अर्थात् सोते समय भी मेरी प्रसुप्त चेतना में आपकी भावना जागरित रहे। हे प्रभो! ( अप्रयुच्छन् ) = सब प्रकार के प्रमाद से रहित होकर ( नः रक्ष ) = आप हमारी रक्षा कीजिए, अर्थात् हमारी निद्रा का भी कोई क्षण इस प्रकार के प्रमादवाला न हो जाए कि हम अपनी शक्ति को नष्ट कर बैठें।
३. निद्रा की समाप्ति पर आप ( नः ) = हमें ( पुनः ) = फिर ( प्रबुधे ) = प्रकृष्ट ज्ञान के लिए ( कृधि ) = कीजिए। रात्रि में स्वप्न में भी हम आपका ही स्मरण व दर्शन करें और दिन तो हमारा ज्ञानवृद्धि में बीते ही।
भावार्थ -
भावार्थ — रात्रि में हम प्रभु का स्मरण करनेवाले हों, स्वप्न में भी हमें प्रभु-दर्शन ही हो। हम दिन को ज्ञानप्राप्ति में विनियुक्त करें।
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