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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 29
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    यस्यै॑ ते य॒ज्ञियो॒ गर्भो॒ यस्यै॒ योनि॑र्हिर॒ण्ययी॑। अङ्गा॒न्यह्रु॑ता॒ यस्य॒ तं मा॒त्रा सम॑जीगम॒ꣳ स्वाहा॑॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्यै॑। ते॒। य॒ज्ञियः॑। गर्भः॑। यस्यै॑। योनिः॑। हि॑र॒ण्ययी॑। अङ्गा॑नि। अह्रु॑ता। यस्य॑। तम्। मा॒त्रा। सम्। अ॒जी॒ग॒म॒म्। स्वाहा॑ ॥२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यै ते यज्ञियो गर्भा यस्यै योनिर्हिरण्यी । अङ्गान्यह्रुता यस्य तम्मात्रा समजीगमँ स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्यै। ते। यज्ञियः। गर्भः। यस्यै। योनिः। हिरण्ययी। अङ्गानि। अह्रुता। यस्य। तम्। मात्रा। सम्। अजीगमम्। स्वाहा॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -

    १. ( यस्यै ) = [ षष्ठ्यर्थे चतुर्थी ] जिस उत्तम लक्षणवाली ( ते ) = तेरा ( गर्भः ) = गर्भ ( यज्ञियः ) = यज्ञिय है [ यज्ञमर्हति ] पवित्र है, उत्तम गुणों से सङ्गतीकरण योग्य है। 

    २. ( यस्यै ) = जिसका ( योनिः ) =  जन्मस्थान ( हिरण्ययी ) = रोगरहित व शुद्ध है [ हृ = हरणे ]। 

    ३. अतएव ( यस्य ) = जिस गर्भस्थ बालक के ( अङ्गानि ) = सब अङ्ग ( अह्रुता ) = अकुटिल व सरल हैं। 

    ४. ( तम् ) = उस बालक को ( मात्रा ) = माता के साथ ( स्वाहा ) = सम्यक् क्रिया से ( समजीगमम् ) = प्राप्त होऊँ।

    मन्त्रार्थ से निम्न बातें स्पष्ट हैं— १. जब बच्चा गर्भस्थ है उसी समय से माता ने उसमें उत्तम गुणों को सङ्गत करने का प्रयत्न किया है। २. माता की योनि निर्दोष है। इसकी निर्दोषता पर ही स्वस्थ बालक की उत्पत्ति निर्भर है। ३. प्रयत्न यही हो कि बालक का कोई भी अङ्ग विकल न हो। ४. नियमित उत्पत्ति में माता व बालक दोनों पूर्ण स्वस्थ होने ही चाहिएँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — माता गर्भ में बालक के चरित्र का निर्माण कर देती है। वह माता है— गर्भमानकर्त्री है—गर्भ में बच्चे को बनानेवाली है।

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