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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 62
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - स्वराट आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    1

    य॒ज्ञस्य॒ दोहो॒ वित॑तः पुरु॒त्रा सोऽअ॑ष्ट॒धा दिव॑म॒न्वात॑तान। स य॑ज्ञ धुक्ष्व॒ महि॑ मे प्र॒जाया॑ रा॒यस्पोषं॒ विश्व॒मायु॑रशीय॒ स्वाहा॑॥६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञस्य॑। दोहः॑। वित॑त॒ इति॒ विऽत॑तः। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। सः। अ॒ष्ट॒धा। दिव॑म्। अ॒न्वात॑ता॒नेत्य॑नु॒ऽआत॑तान। सः। य॒ज्ञ। धु॒क्ष्व॒। महि॑। मे॒। प्र॒जाया॒मिति॑ प्र॒ऽजाया॑म्। रा॒यः। पोष॑म्। विश्व॑म्। आयुः॑। अ॒शी॒य॒। स्वाहा॑ ॥६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञस्य दोहो विततः पुरुत्रा सो अष्टधा दिवमन्वा ततान । स यज्ञ धुक्ष्व महि मे प्रजयाँ रायस्पोषँ विश्वमायुरशीय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञस्य। दोहः। वितत इति विऽततः। पुरुत्रेति पुरुऽत्रा। सः। अष्टधा। दिवम्। अन्वाततानेत्यनुऽआततान। सः। यज्ञ। धुक्ष्व। महि। मे। प्रजायामिति प्रऽजायाम्। रायः। पोषम्। विश्वम्। आयुः। अशीय। स्वाहा॥६२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 62
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    पदार्थ -

    १. ( यज्ञस्य ) = यज्ञ का ( दोहः ) = प्रपूरण ( पुरुत्रा ) = बहुत प्रकार से व बहुत स्थानों में ( विततः ) =  फैला हुआ है। मन्त्र संख्या ६० में कहा था कि वह द्युलोक में प्रकाश के रूप से, अन्तरिक्षलोक में विचारपूर्वक कर्म करने की वृत्ति के रूप से तथा पृथिवीलोक में शक्तियों के विस्तार के रूप से परिणत होता है। यज्ञ मस्तिष्क को ज्ञान से भरता है, हृदय को मध्यमार्ग में चलने की प्रवृत्ति से युक्त करता है और शरीर में सब अङ्गों की शक्ति का विस्तार करता है। 

    २. ( सः ) = वह यज्ञ ( अष्टधा ) = आठ प्रकार से ( दिवम् अनु आततान ) = इस आकाश में विस्तृत हुआ है, अर्थात् यज्ञशील के जीवन में दया सर्वभूतेषु, क्षांतिः, अनसूया, शौचं, अनायासः, मङ्गलम्, अकार्पण्यम्, अस्पृहा इन आठ गुणों का विस्तार होता है। यज्ञशील [ क ] सब प्राणियों पर दया करता है, [ ख ] सहनशील होता है, [ ग ] दूसरों के गुणों में दोषदर्शन नहीं करता, [ घ ] पवित्रता को अपनाता है, [ ङ ] सब कार्यों को सहज स्वभाव से शान्तिपूर्वक करता है, [ च ] मङ्गल कार्यों में प्रवृत्त होता है, [ छ ] उदारता को अपनाता है, [ ज ] किसी भी वस्तु के लिए अत्यन्त आसक्तिवाला नहीं होता। 

    ३. ( यज्ञ ) =  हे यज्ञ! ( सः ) = वह तू ( मे ) = मुझमें ( महि ) = महिमा को अथवा [ मह पूजायाम् ] पूजा की वृत्ति को ( धुक्ष्व ) = पूरित कर। यज्ञ करता हुआ जहाँ मैं महिमा को प्राप्त होऊँ वहाँ मेरी वृत्ति प्रभु-पूजा की बने। 

    ४. ( प्रजायां रायस्पोषम् ) = प्रजा के होने पर मैं धन के पोषण को प्राप्त करूँ। यज्ञ की महिमा से मेरी सन्तान उत्तम हो और मैं उनके पोषण के लिए उचित धन प्राप्त करनेवाला होऊँ। 

    ५. ( विश्वम् ) = पूर्ण ( आयुः ) = जीवन को ( अशीय ) = प्राप्त करूँ। 

    ६. ( स्वाहा ) =  इस सबके लिए मेरा जीवन स्वार्थ के त्यागवाला हो, यज्ञ की वृत्तिवाला हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — यज्ञ से मेरा जीवन दया आदि आठ गुणों से युक्त हो, मुझमें पूजा की वृत्ति बढ़े, सन्तान व उनके पोषण के लिए मैं धन प्राप्त करूँ, पूर्ण आयुवाला होऊँ। वस्तुतः वसिष्ठ का जीवन ऐसा होना ही चाहिए।

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