यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 5
ऋषिः - कुत्स ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - प्राजापत्या अनुष्टुप्,निचृत् आर्षी जगती
स्वरः - निषादः, गान्धारः
4
विव॑स्वन्नादित्यै॒ष ते॑ सोमपी॒थस्तस्मि॑न् मत्स्व। श्रद॑स्मै नरो॒ वच॑से दधातन॒ यदा॑शी॒र्दा दम्प॑ती वा॒मम॑श्नु॒तः। पुमा॑न् पु॒त्रो जा॑यते वि॒न्दते॒ वस्वधा॑ वि॒श्वाहा॑र॒पऽए॑धते गृ॒हे॥५॥
स्वर सहित पद पाठविव॑स्वन्। आ॒दि॒त्य॒। ए॒षः। ते॒। सो॒म॒पी॒थ इति॑ सोमऽपी॒थः। तस्मि॑न्। म॒त्स्व॒। श्रत्। अ॒स्मै॒। न॒रः। वच॑से। द॒धा॒त॒न॒। यत्। आ॒शी॒र्देत्या॑शीः॒ऽदा। दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती। वा॒मम्। अश्नु॒तः। पुमा॑न्। पु॒त्रः। जा॒य॒ते॒। वि॒न्दते॑। वसु॑। अध॑। वि॒श्वाहा॑। अ॒र॒पः। ए॒ध॒ते॒। गृ॒हे ॥५॥
स्वर रहित मन्त्र
विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथस्तस्मिन्मत्स्व श्रदस्मै नरो वचसे दधातन यदाशीर्दा दम्पती वाममश्नुतः । पुमान्पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारप एधते गृहे ॥
स्वर रहित पद पाठ
विवस्वन्। आदित्य। एषः। ते। सोमपीथ इति सोमऽपीथः। तस्मिन्। मत्स्व। श्रत्। अस्मै। नरः। वचसे। दधातन। यत्। आशीर्देत्याशीःऽदा। दम्पती इति दम्ऽपती। वामम्। अश्नुतः। पुमान्। पुत्रः। जायते। विन्दते। वसु। अध। विश्वाहा। अरपः। एधते। गृहे॥५॥
विषय - ज्ञानी, गुणी, संयमी, दानी
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र में उत्तम सन्तान निर्माण का संकेत था। उसी का उपाय प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं— १. हे ( विवस्वन् ) = ज्ञान की किरणोंवाले! ( आदित्य ) = सूर्य के समान उत्तम गुणों का ग्रहण करनेवाले पतिदेव ! ( एषः ते सोमपीथः ) = यह तेरा सोम का पान है। ( तस्मिन् मत्स्व ) = उसमें तू आनन्द का अनुभव कर, अर्थात् पति ज्ञानी, गुणग्राही व संयमी हो।
२. प्रभु इन प्रगतिशील व्यक्तियों से कहते हैं कि ( नरः ) = हे उन्नतिशील पुरुषो! ( अस्मै वचसे ) = इस वचन के लिए ( श्रत् दधातन ) = श्रद्धा करो। ( यत् ) = कि ( आशीर्दा ) = इच्छापूर्वक दान देनेवाले ( दम्पती ) = पति- पत्नी ( वामम् ) = सुन्दर सन्तानों को ही ( अश्नुतः ) = प्राप्त करते हैं। दान देने से मनोवृत्ति सुन्दर बनती है, मनुष्य विलास से ऊपर उठता है, परिणामतः सन्तानों में भी वही सौन्दर्य अवतीर्ण होता है।
३. ( पुमान् पुत्रः जायते ) = इनका सन्तान [ पू = पवित्र करना ] पवित्र हृदय व पौरुषवाला होता है। ( विन्दते वसु ) = वह सन्तान निवास के लिए आवश्यक उत्तम धनों को प्राप्त करनेवाला होता है। ( अध ) = और ( विश्वाहा ) = सदा ( अरपः ) = पापशून्य होता हुआ [ अ-रपस् ] ( गृहे ) = अपने घर में ( एधते ) = सब दृष्टिकोणों से उन्नति करता है।
४. यह सन्तान ( पुमान् ) = अपने जीवन को पवित्र बनाता है। ( अरपः ) = पापशून्य होता है। अतएव इसका नाम ‘कुत्स’ [ सब बुराइयों की हिंसा करनेवाला ] हो जाता है। यही इस मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ -
भावार्थ — पति ‘ज्ञानी, गुणग्राही व संयमी’ हो। पति-पत्नी दिल खोलकर उदारता से दान देनेवाले हों तो उनके घरों में ‘उत्तम, वीर, पवित्र व पापशून्य’ सन्तान होते हैं।
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