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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 47
    ऋषिः - शास ऋषिः देवता - विश्वकर्म्मेन्द्रो देवता छन्दः - विराट ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽस्य॒ग्नये॑ त्वा गाय॒त्रछ॑न्दसं गृह्णा॒मीन्द्रा॑य त्वा त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दसं गृह्णामि॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जग॑च्छन्दसं गृह्णाम्यनु॒ष्टुप्ते॑ऽभिग॒रः॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। गा॒य॒त्रछ॑न्दस॒मिति॑ गाय॒त्रऽछन्द॑सम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दसम्। त्रि॒स्तुप्छ॑न्दस॒मिति॑ त्रि॒स्तुप्ऽछ॑न्दसम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जग॑च्छन्दस॒मि॑ति॒ जग॑त्ऽछन्दसम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। ते॒। अ॒भि॒ग॒र। इत्य॑भिऽग॒रः ॥४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतो स्यग्नये त्वा गायत्रच्छन्दसङ्गृह्णामीइन्द्राय त्वा त्रिष्टुप्छन्दसङ्गृह्णामि विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यो जगच्छन्दसङ्गृह्णाम्यनुष्टुप्ते भिगरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अग्नये। त्वा। गायत्रछन्दसमिति गायत्रऽछन्दसम्। गृह्णामि। इन्द्राय। त्वा। त्रिष्टुप्छन्दसम्। त्रिस्तुप्छन्दसमिति त्रिस्तुप्ऽछन्दसम्। गृह्णाामि। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। जगच्छन्दसमिति जगत्ऽछन्दसम्। गृह्णाामि। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। ते। अभिगर। इत्यभिऽगरः॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र की भावना को ही प्रकारान्तरेण दृढ़ करते हुए कहते हैं कि— १. हे राजन्! तुम ( उपयामगृहीतः असि ) = उपासना द्वारा अपने जीवन में यम-नियम का स्वीकार करनेवाले हो ( अग्नये त्वा ) = तुझे राष्ट्र में अग्रणी बनने के लिए, राष्ट्र को आगे ले-चलने के लिए ( गृह्णामि ) = मैं ग्रहण करता हूँ। उस तुझे ग्रहण करता हूँ जो तू ( गायत्रच्छन्दसम् ) = प्रभु के स्तवन की कामनावाला है [ गायति इति गायत्रः, छन्द = इच्छा ] अथवा जो तू गायत्री छन्द के मन्त्रों के अर्थ के विज्ञान से युक्त है। 

    २. ( इन्द्राय त्वा ) = शत्रुओं के विद्रावण के लिए तुझे ( गृह्णामि ) = स्वीकार करता हूँ जो तू ( त्रिष्टुप् छन्दसम् ) = [ त्रिष्टुप् = stop ] काम, क्रोध व लोभ तीनों को रोकने की कामनावाला है। अथवा त्रिष्टुप् छन्द के मन्त्रों के अर्थ के विज्ञान से युक्त है। 

    ३. ( विश्वेभ्यः त्वा देवेभ्यः ) = सब दिव्य गुणों के प्रसार के लिए, राष्ट्र में अच्छाई को फैलाने के लिए तुझे ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ। उस तुझे स्वीकार करता हूँ जो तू ( जगत् छन्दसम् ) = निरन्तर क्रियाशीलता की इच्छावाला है। अथवा जगती छन्द के मन्त्रों के अर्थ के विज्ञान से युक्त है। 

    ४. ( अनुष्टुप् ) = [ अनुष्टोभते स्तभ्नाति अज्ञानम् ] अज्ञान का नाश ही ( ते ) =  तेरा ( अभिगरः ) = [ अभिष्टवः ] प्रभु-स्तवन है, अर्थात् प्रजा के अज्ञानान्धकार को दूर करना ही उसकी प्रभु-स्तुति हो जाती है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — राजा बनने योग्य वह है जो १. राष्ट्र की प्रगति के लिए प्रभु-स्तवन की कामनावाला है। २. शत्रुओं के विद्रावण के लिए काम-क्रोध-लोभ को जीतने की इच्छा करता है। ३. दिव्य गुणों के विस्तार के लिए निरन्तर क्रियाशील होता है। ४. प्रजा के अज्ञानान्धकार को दूर करना ही अपना प्रभु-स्तवन मानता है।

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