यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 3
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - आदित्यो गृहपतिर्देवताः
छन्दः - निचृत् आर्षी पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
3
क॒दा च॒न प्रयु॑च्छस्यु॒भे निपा॑सि॒ जन्म॑नी। तुरी॑यादित्य॒ सव॑नं तऽइन्द्रि॒यमात॑स्थाव॒मृतं॑ दि॒व्यादि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥३॥
स्वर सहित पद पाठक॒दा। च॒न। प्र। यु॒च्छ॒सि॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। नि। पा॒सि॒। जन्म॑नि॒ऽइति॒ जन्म॑नी॒। तु॒री॑य। आ॒दि॒त्य॒। सव॑नम्। ते॒। इ॒न्द्रि॒यम्। आ। त॒स्थौ॒। अ॒मृत॑म्। दि॒वि। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा चन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी । तुरीयादित्य सवनन्तऽइन्द्रियमातस्थावमृतन्दिव्या दित्येभ्यस्त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
कदा। चन। प्र। युच्छसि। उभेऽइत्युभे। नि। पासि। जन्मनिऽइति जन्मनी। तुरीय। आदित्य। सवनम्। ते। इन्द्रियम्। आ। तस्थौ। अमृतम्। दिवि। आदित्येभ्यः। त्वा॥३॥
विषय - इहलोक व परलोक
पदार्थ -
पति के ही विषय में कहते हैं कि आप १. ( कदा च ) = कभी भी ( न प्रयुच्छसि ) = प्रमाद नहीं करते हो। ‘न प्रमदितव्यम्’ आचार्य के इस उपदेश को आप भूलते नहीं।
२. सदा सतर्क और अप्रमत्त रहते हुए आप ( उभे ) = दोनों ( जन्मनी ) = जन्मों को ( निपासि ) = निश्चय से रक्षित करते हो। इहलोक व परलोक दोनों को सुधारने का प्रयत्न करते हो। आप अभ्युदय के साथ निःश्रेयस को जोड़कर चलते हो, यही तो धर्म है।
३. ( तुरीय ) = आप तुरीय हो। तुरीय का अर्थ निम्न मन्त्र से स्पष्ट हो जाता है—‘सोमस्य जाया प्रथमं गन्धर्वस्तेऽपरः पतिः। तृतीयोऽग्निनष्टे पतिः तुरीयस्ते मनुष्यजाः’ [ अथर्व १४।२।३ ] प्रथम तू सोम की पत्नी है, तेरा दूसरा पति गन्धर्व है, अग्नि तेरा तीसरा पति है और चौथा मनुष्य से होनेवाला, अर्थात् माता-पिता कन्या के लिए वर खोजते समय पहला ध्यान तो यह करें कि वह ‘सोम’ हो, शक्ति का पुञ्ज हो। उसमें वीर्यशक्ति हो, वह नामर्द न हो, सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य न हो। दूसरी बात यह कि वह ज्ञान की वाणी का पति हो [ गां धरति ] कुछ पढ़ा-लिखा हो, अनपढ़, गँवार न हो। तीसरा यह कि वह अग्नि हो—उन्नतिशील [ progressive ] हो और चौथे यह कि वह मनुष्यता—दयालुता को लिये हुए हो, क्रूर न हो, Humane हो। एवं, तुरीय का अर्थ है, आप दयालु हों, आपमें मानवता हो।
४. ( आदित्य ) = गुणों के आप आदान करनेवाले हों, अच्छाई की आप कदर करते हों।
५. ( ते इन्द्रियम् ) = आपका वीर्य ( सवनम् ) = उत्पादक है, सुन्दर सन्तान को जन्म देनेवाला है।
६. ( आतस्थौ ) = आपका यह वीर्य शरीर में ही स्थित होता है, यह व्यर्थ में नष्ट नहीं किया जाता।
७. ( अमृतम् ) = यह आपको अमृत—नीरोग बनानेवाला है।
८. ( दिवि ) = यह ज्ञान के निमित्त है। अथवा मस्तिष्करूप द्युलोक में स्थित होता है।
९. ऐसे ( त्वा ) = आपको मैं ( आदित्येभ्यः ) = उत्तम प्रजाओं के लिए वरती हूँ।
भावार्थ -
भावार्थ — १. आप प्रमादशून्य हो। २. इहलोक व परलोक दोनों का ध्यान करते हो। ३. आप मानवता को लिये हुए हो। ४. गुणों का आह्वान करनेवाले हो। ५. उत्पादक शक्ति से युक्त हो। ६. शक्ति को नष्ट नहीं होने देते हो। ७. नीरोग हो। ८. शक्ति को ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाते हो।
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