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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - प्राजापत्या गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्मा॒ उदी॑च्यादि॒शः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । उदी॑च्या: । दि॒श: ॥४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मा उदीच्यादिशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै । उदीच्या: । दिश: ॥४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (उदीच्याः दिश:) = उत्तर दिशा से सब देवों ने (शारदौ मासौ) = शरद् ऋतु के दो मासों को (गोसतारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाया, (च) = तथा (श्यैतम्) = क्रियाशीलता को (नौधसं च) = और प्रभु-स्तवन को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाया। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार क्रियाशीलता व प्रभु-स्तवन के महत्त्व को समझता है (एनम्) = इस व्रात्य विद्वान् की (उदीच्या: दिश:) = उत्तर दिशा से (शारदौ मासौ) = शरद् ऋतु के दो मास (गोपायत:) = रक्षित करते हैं (च) = और (श्यैतं नौधसं च) = क्रियाशीलता व प्रभु-स्तवन विहित कार्यों के सिद्ध करने में प्रवृत्त करते हैं।

    भावार्थ -

    व्रात्य विद्वान् उत्तर दिशा की ओर से शरद् ऋतु के दो मासों से रक्षित किया जाता है तथा क्रियाशीलता व प्रभु-स्तवन इसे विहितकार्यों के अनुष्ठान में प्रवृत्त करते हैं।

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