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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    ग्रैष्मा॑वेनं॒मासौ॒ दक्षि॑णाया दि॒शो गो॑पायतो यज्ञाय॒ज्ञियं॑ च वामदे॒व्यं चानु॑ तिष्ठतो॒ यए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्रैष्मौ॑ । ए॒न॒म् । मासौ॑ । दक्षि॑णाया: । दि॒श: । गो॒पा॒य॒त॒: । य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॑म् । च॒ । वा॒म॒ऽदे॒व्यम् । च॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒त॒: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्रैष्मावेनंमासौ दक्षिणाया दिशो गोपायतो यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं चानु तिष्ठतो यएवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्रैष्मौ । एनम् । मासौ । दक्षिणाया: । दिश: । गोपायत: । यज्ञायज्ञियम् । च । वामऽदेव्यम् । च । अनु । तिष्ठत: । य: । एवम् । वेद ॥४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (तस्मै) = इस व्रात्य के लिए (दक्षिणायाः दिश:) = दक्षिणा दिक से सब देवों ने (ग्रैष्मौ मासौ) = ग्रीष्म ऋतु के दो मासौ को (गोपतारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाया, (च) = तथा (यज्ञायज्ञियम्) = यज्ञों के साधक वेदज्ञान को (वामदेव्यं च) = सुन्दर दिव्यगुणों की साधक ईश-उपासना को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाया। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार 'यज्ञायज्ञिय व वामदेव्य' के महत्त्व को समझता है, (एनम्) = इस व्रात्य को (दक्षिणाया दिश:) = दक्षिण दिक् से (ग्रैष्मौ मासौ गोपायत:) = ग्रीष्म ऋतु के दो मास रक्षित करते हैं,(च) = तथा (यज्ञायज्ञियम्) = यज्ञों का साधक वेदज्ञान (वामदेव्यं च) = सुन्दर दिव्यगुणों का साधन प्रभु-पूजन (अनुतिष्ठत:) = विहित कार्यों को सिद्ध कराते हैं।

    भावार्थ -

    व्रात्य को ग्रीष्मर्तु के दो मास दक्षिण दिशा से रक्षित करते हैं और 'यज्ञसाधक वेदज्ञान तथा सुन्दर दिव्यगुणों का साधन व प्रभु-पूजन' विहित कर्मों में प्रवृत्त करते हैं।

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