अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
है॑म॒नौ मासौ॑गो॒प्तारा॒वकु॑र्व॒न्भूमिं॑ चा॒ग्निं चा॑नुष्ठा॒तारौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठहै॒म॒नौ । मासौ॑ । गो॒प्तारौ॑ । अकु॑र्वन् । भूमि॑म् । च॒ । अ॒ग्निम् । च॒ । अ॒नु॒ऽस्था॒तारौ॑ ॥४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
हैमनौ मासौगोप्तारावकुर्वन्भूमिं चाग्निं चानुष्ठातारौ ॥
स्वर रहित पद पाठहैमनौ । मासौ । गोप्तारौ । अकुर्वन् । भूमिम् । च । अग्निम् । च । अनुऽस्थातारौ ॥४.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 14
विषय - ध्रुवायाः दिशः
पदार्थ -
१. (तस्मै) = उस व्रात्य विद्वान् के लिए (ध्रुवायाः दिश:) = ध्रुव दिशा से (हैमन्तौ मासौ) = हेमन्त ऋतु के दो मासों को सब देवों ने (गोप्तारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाया तथा (भूमिं च अग्निं च) = इस भूमिरूप शरीर को तथा शरीर में स्थित अग्निरूप शक्ति को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाया। इस व्रात्य का शक्तिसम्पन्न शरीर विहितानुष्ठान में प्रवृत्त हुआ। २. (य:) = जो व्रात्य (एवं वेद) = इसप्रकार भूमि व अग्नि के प्रयोजन को समझता है (एनम्) = इस व्रात्य को (हेमन्तौ मासौ) = हेमन्त ऋतु के दो मास (ध्रुवायाः दिश:) = ध्रुवा दिशा से (गोपायत:) = रक्षित करते हैं और (भूमिः च अग्निः च अनुतिष्ठत:) = शरीर व शरीरस्थ शक्ति विहित कर्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्त करते हैं।
भावार्थ -
व्रात्य विद्वान् ध्रुवा दिशा से हेमन्त ऋतु के दो मासों द्वारा रक्षित होता है तथा इस विद्वान् को शक्तिसम्पन्न शरीरविहित कार्य के अनुष्ठान में समर्थ करता है।
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