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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    वार्षि॑कावेनं॒मासौ॑ प्र॒तीच्या॑ दि॒शो गो॑पायतो वैरू॒पं च॑ वैरा॒जं चानु॑ तिष्ठतो॒ य ए॒वंवेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वार्षि॑कौ । ए॒न॒म् । मासौ॑ । प्र॒तीच्या॑: । दि॒श: । गो॒पा॒य॒त॒: । वै॒रू॒पम् । च॒ ।वै॒रा॒जम् । च॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒त॒: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वार्षिकावेनंमासौ प्रतीच्या दिशो गोपायतो वैरूपं च वैराजं चानु तिष्ठतो य एवंवेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वार्षिकौ । एनम् । मासौ । प्रतीच्या: । दिश: । गोपायत: । वैरूपम् । च ।वैराजम् । च । अनु । तिष्ठत: । य: । एवम् । वेद ॥४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्रतीच्याः दिश:) = पश्चिम दिशा से सब देव (वार्षिकौ मासौ) = वर्षा ऋतु के दो मासों को (गौप्तारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाते हैं (च) = तथा (वैरूपम्) = विशिष्ट तेजस्विता-सम्पन्न रूप को वैराजं च तथा विशिष्ट ज्ञानदीप्ति को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाते हैं। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार 'बैरूप और विराज' के महत्व को समझता है, (एनम्) = इस व्रात्य को (वार्षिकौ मासौ) = वर्षा के दो मास (प्रतीच्या: दिश:) = पश्चिम दिशा से (गोपायत:) = रक्षित करते है, (च) = तथा (वैरूपम्) = विशिष्ट तेजस्विता-सम्पन्न रूप (वैराजं च) = और विशिष्ट ज्ञानदीप्ति (अनुतिष्ठत:) = विहित कर्मों को सिद्ध करने में प्रवृत्त होते हैं।

    भावार्थ -

    व्रात्य को पश्चिम दिशा से वर्षा के दो मास रक्षित करते हैं और 'वैरूप तथा वैराज' विहित कर्मों को सिद्ध करने में समर्थ करते हैं।

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