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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    शै॑शि॒रौ मासौ॑गो॒प्तारा॒वकु॑र्व॒न्दिवं॑ चादि॒त्यं चा॑नुष्ठा॒तारौ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शै॒शि॒रौ । मासौ॑ । गो॒प्तारौ॑ । अकु॑र्वन् । दिव॑म् । च॒ । आ॒दि॒त्यम् । च॒ । अ॒नु॒ऽस्था॒तारौ॑ ॥४.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शैशिरौ मासौगोप्तारावकुर्वन्दिवं चादित्यं चानुष्ठातारौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शैशिरौ । मासौ । गोप्तारौ । अकुर्वन् । दिवम् । च । आदित्यम् । च । अनुऽस्थातारौ ॥४.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 17

    पदार्थ -

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य विद्वान् के लिए (ऊर्ध्वाया: दिश:) = ऊर्ध्वा दिशा से सब देवों ने (शैशिरौ मासौ) = शिशिर ऋतु के दो मासों को (गोप्तारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाया। (दिवं च आदित्यं च) = मस्तिष्करूप धुलोक को तथा ज्ञानरूप आदित्य को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाया। (यः) = जो विद्वान् (एवं वेद) = इसप्रकार ज्ञानसम्पन्न मस्तिष्क के महत्त्व को समझता है (एनम्) = इस व्रात्य को (शैशिरौ मासौ) = शिशिर ऋतु के दो मास (ऊर्ध्वाया: दिश:) = ऊर्ध्वा दिक् से (गोपायत:) = रक्षित करते हैं (च) = तथा (द्यौः आदित्यः च) = मस्तिष्क तथा ज्ञान [धी:-विद्या] (अनुतिष्ठत:) = इसके सब विहित कार्यों को सिद्ध करते है। यह ज्ञान-सम्पन्न मस्तिष्क से पवित्र कार्यों का ही सम्पादन करनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    ऊर्ध्वा दिक् से शिशिर के दो मास व्रात्य विद्वान् की रक्षा करते हैं और यह व्रात्य विद्वान् ज्ञानसम्पन्न मस्तिष्क से विहित कार्यों का सम्पादन करता है।

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