अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
वार्षि॑कौ॒ मासौ॑गो॒प्तारा॒वकु॑र्वन्वैरू॒पं च॑ वैरा॒जं चा॑नुष्ठा॒तारौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवार्षि॑कौ । मासौ॑ । गो॒प्तारौ॑ । अकु॑र्वन् । वै॒रू॒पम् । च॒ । वै॒रा॒ज॒म् । च॒ । अ॒नु॒ऽस्था॒तारौ॑ ॥४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
वार्षिकौ मासौगोप्तारावकुर्वन्वैरूपं च वैराजं चानुष्ठातारौ ॥
स्वर रहित पद पाठवार्षिकौ । मासौ । गोप्तारौ । अकुर्वन् । वैरूपम् । च । वैराजम् । च । अनुऽस्थातारौ ॥४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
विषय - प्रतीच्याः दिशः
पदार्थ -
१. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्रतीच्याः दिश:) = पश्चिम दिशा से सब देव (वार्षिकौ मासौ) = वर्षा ऋतु के दो मासों को (गौप्तारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाते हैं (च) = तथा (वैरूपम्) = विशिष्ट तेजस्विता-सम्पन्न रूप को वैराजं च तथा विशिष्ट ज्ञानदीप्ति को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाते हैं। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार 'बैरूप और विराज' के महत्व को समझता है, (एनम्) = इस व्रात्य को (वार्षिकौ मासौ) = वर्षा के दो मास (प्रतीच्या: दिश:) = पश्चिम दिशा से (गोपायत:) = रक्षित करते है, (च) = तथा (वैरूपम्) = विशिष्ट तेजस्विता-सम्पन्न रूप (वैराजं च) = और विशिष्ट ज्ञानदीप्ति (अनुतिष्ठत:) = विहित कर्मों को सिद्ध करने में प्रवृत्त होते हैं।
भावार्थ -
व्रात्य को पश्चिम दिशा से वर्षा के दो मास रक्षित करते हैं और 'वैरूप तथा वैराज' विहित कर्मों को सिद्ध करने में समर्थ करते हैं।
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