अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
इन्द्र॑स्य॒ वृष्णो॒ वरु॑णस्य॒ राज्ञ॑ आदि॒त्यानां॑ म॒रुतां॒ शर्ध॑ उ॒ग्रम्। म॒हाम॑नसां भुवनच्य॒वानां॒ घोषो॑ दे॒वानां॒ जय॑ता॒मुद॑स्थात् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य। वृष्णः॑। वरु॑णस्य। राज्ञः॑। आ॒दि॒त्याना॑म्। म॒रुता॑म्। शर्धः॑। उ॒ग्रम्। म॒हाऽम॑नसाम्। भु॒व॒न॒ऽच्य॒वाना॑म्। घोषः॑। दे॒वाना॑म्। जय॑ताम्। उत्। अ॒स्था॒त् ॥१३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम्। महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य। वृष्णः। वरुणस्य। राज्ञः। आदित्यानाम्। मरुताम्। शर्धः। उग्रम्। महाऽमनसाम्। भुवनऽच्यवानाम्। घोषः। देवानाम्। जयताम्। उत्। अस्थात् ॥१३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
विषय - देवों के तीन महारथी
पदार्थ -
१. (वृष्णः इन्द्रस्य) = शक्तिशाली जितेन्द्रिय पुरुष का, (राज्ञः वरुणस्य) = अति नियमित जीवनवाले वरुण का, जिसने सब बुराइयों का वारण किया है, उस वरुण का (आदित्यानां मरुताम्)=- [आदानात् आदित्यः, मरुतः प्राणम्] अपने अन्दर उत्तमता का निरन्तर ग्रहण करनेवाले प्राणसाधक मरुतों का (शर्धः) = बल (उनम्) = बड़ा उदात्त व तीव्र होता है। २. ये 'इन्द्र व मरुत्' देवसेनाओं के मुखिया हैं। इस (महामनसाम्) = विशाल मनवाले, (भुवनच्यवानाम्) = भुवनों का भी त्याग करनेवाले, लोकहित के लिए अधिक-से-अधिक त्याग करने के लिए (उद्यत जयताम्) = आसुरभावनाओं को पराजित करनेवाले (देवानाम्) = देवों का (घोषा) = विजयघोष (उदस्थात्) = मेरे जीवन में सदा उठे। मेरे जीवन में सदा देवों का विजय हो और असुरों का पराजय।
भावार्थ - मैं 'इन्द्र बनूँ, वरुण बने, मरुत् बनें। हृदय को विशाल बनाऊँ, सदा त्याग के लिए उद्यत रहूँ।
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