अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 9
इन्द्र॑ एषां ने॒ता बृह॒स्पति॒र्दक्षि॑णा य॒ज्ञः पु॒र ए॑तु॒ सोमः॑। दे॑वसे॒नाना॑मभिभञ्जती॒नां जय॑न्तीनां म॒रुतो॑ यन्तु॒ मध्ये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑। ए॒षा॒म्। ने॒ता। बृह॒स्पतिः॑। दक्षि॑णा। य॒ज्ञः। पु॒रः। ए॒तु॒। सोमः॑। दे॒व॒ऽसे॒नाना॑म्। अ॒भि॒ऽभ॒ञ्ज॒ती॒नाम्। जय॑न्तीनाम्। म॒रुतः॑। य॒न्तु॒। मध्ये॑ ॥१३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र एषां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः। देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्तु मध्ये ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। एषाम्। नेता। बृहस्पतिः। दक्षिणा। यज्ञः। पुरः। एतु। सोमः। देवऽसेनानाम्। अभिऽभञ्जतीनाम्। जयन्तीनाम्। मरुतः। यन्तु। मध्ये ॥१३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 9
विषय - देवसेनाएँ
पदार्थ -
१. (देवसेनानाम्) = दैवी सम्पत्ति में गिने जानेवाले दिव्यगुणों की सेनाओं के, (अभिभञ्जतीनाम्) = जो चारों ओर आसुरभावनाओं का भंग कर रही हैं और (जयन्तीनाम्) = आसुरवृत्तियों पर विजय पा रही हैं, उनके (मध्ये) = मध्य में (मरुतः) = प्राणों की साधना करनेवाले मनुष्य चलें। ये देवसेनाएँ सदा प्राणसाधना करनेवाले मनुष्यों के पीछे चला करती हैं। (प्राणायामैदहेद् दोषान्) = प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष क्षीण हो ही जाते हैं। मानसमलों के नष्ट होने से आसुरप्रवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। क्रोध का स्थान करुणा ले-लेती है, काम प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। लोभ का स्थान सन्तोष व त्याग को मिल जाता है। यही देवसेनाओं की आसुरसेनाओं पर विजय है। २. (इन्द्रः एषां नेता) = इन दिव्यगुणों का सेनापति [नेता] इन्द्र है। यह इन्द्रियों का अधिष्ठाता, इन्द्रियों को वश में करके आसुरप्रवृत्तियों को दूर भाग देता है। सब इन्द्रियों से भोगों को भोगनेवाला दशानन तो राक्षससेनाओं का मुखिया है। ३. इन देवसेनाओं के (पुरः) = आगे ये (एतु) = चलें ३. (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी। ज्ञानाग्नि ही तो कामादि को भस्म करती है। ४. दक्षिणा-दान की वृत्ति। यह लोभ को समाप्त करके पापों को ही नष्ट कर देती है, इसीलिए देव सदा दानशील हैं 'देवो दानात्'। ५. (यज्ञः) = यज्ञ की मौलिक भावना नि:स्वार्थ कर्म हैं, इसीलिए यज्ञ में अपवित्रता का स्थान नहीं। ६. (सोमः) = सौम्यता। यह सौम्यता-नातिमनिता-देवी सम्पत्ति का चरमोत्कर्ष है। सोम का अर्थ वीर्य भी है। दिव्यगुणों के वर्धन के लिए सोम-रक्षण आवश्यक ही है।
भावार्थ - प्राणसाधना सब दिव्यगुणों का केन्द्र है। दिव्यगणों के वर्धन के लिए इन्द्र-जितेन्द्रिय बनना आवश्यक है। इसके साथ 'ज्ञान-दान-यज्ञ-सौम्यता व सोम [वीर्य] रक्षण दिव्यगुणों के वर्धन के लिए आवश्यक हैं।
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