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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 8
    सूक्त - अप्रतिरथः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - एकवीर सूक्त

    बृह॑स्पते॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्राँ॑ अप॒बाध॑मानः। प्र॑भ॒ञ्जञ्छत्रू॑न्प्रमृ॒णन्न॒मित्रा॑न॒स्माक॑मेध्यवि॒ता त॒नूना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते। परि॑। दी॒य॒। रथे॑न। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒मित्रा॑न्। अ॒प॒ऽबाध॑मानः। प्र॒ऽभ॒ञ्जन्। शत्रू॑न्। प्र॒ऽमृ॒णन्। अ॒मित्रा॑न्। अ॒स्माक॑म्। ए॒धि॒। अ॒वि॒ता। त॒नूना॑म् ॥१३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते परि दीया रथेन रक्षोहामित्राँ अपबाधमानः। प्रभञ्जञ्छत्रून्प्रमृणन्नमित्रानस्माकमेध्यविता तनूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते। परि। दीय। रथेन। रक्षःऽहा। अमित्रान्। अपऽबाधमानः। प्रऽभञ्जन्। शत्रून्। प्रऽमृणन्। अमित्रान्। अस्माकम्। एधि। अविता। तनूनाम् ॥१३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. प्रभु जीव को प्रेरणा देते हैं कि (बृहस्पते) = हे ज्ञान के स्वामिन् ! तू (रथेन) = इस शरीररूप रथ के द्वारा (परिदीया) = [दी-to shine] चमकनेवाला बन और आकाश में उड़नेवाला [दी-to sour] बन-उन्नतिपथ पर आगे बढ़। तूने उन्नत होते-होते ऊर्ध्वादिक् का अधिपति बनना है। (रक्षोहा) = राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाला बन । (अमित्रान् अपबाधमान:) = न स्नेह-विद्वेष की भावनाओं को दूर करता हुआ तू चल। ३. (शत्रून्) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (प्रभजन्) = दूर भगाता हुआ (अमित्रान् प्रमृणन) = विद्वेष की भावनाओं को कुचलता हुआ (अस्माकम्) = हमसे दिये गये इन (तनूनाम्) = शरीर-रथों का अविता एधि-रक्षक बन । द्वेष आदि की भावनाएँ इस शरीर रथ को असमय में ही जीर्ण-शीर्ण न कर दें।

    भावार्थ - हम द्वेष आदि से दूर रहते हुए शरीर-रथ का रक्षण करें। इसके द्वारा उन्नति पथ पर आगे बढ़ते हुए उन्नति के शिखर पर पहुँचें। ऊयादिक्के अधिपति बृहस्पति बनें।

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