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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
    सूक्त - अप्रतिरथः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - एकवीर सूक्त

    अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽदा॒य उ॒ग्रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्रः॑। दु॑श्च्यव॒नः पृ॑तना॒षाड॑यो॒ध्यो॒ऽस्माकं॒ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। गो॒त्राणि॑। सह॑सा। गाह॑मानः। अ॒दा॒यः। उ॒ग्रः। श॒तऽम॑न्युः। इन्द्रः॑। दुः॒ऽच्य॒व॒नः। पृ॒त॒ना॒षाट्। अ॒यो॒ध्यः॑। अ॒स्माक॑म्। सेनाः॑। अ॒व॒तु॒। प्र। यु॒त्ऽसु ॥१३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदाय उग्रः शतमन्युरिन्द्रः। दुश्च्यवनः पृतनाषाडयोध्योऽस्माकं सेना अवतु प्र युत्सु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। गोत्राणि। सहसा। गाहमानः। अदायः। उग्रः। शतऽमन्युः। इन्द्रः। दुःऽच्यवनः। पृतनाषाट्। अयोध्यः। अस्माकम्। सेनाः। अवतु। प्र। युत्ऽसु ॥१३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (गोत्राणि) = धनों को (सहसा) = अपने बल से-पुरुषार्थ से (अभिगाहमान:) = सर्वत: अवगाहन करता हुआ, उन्हें सब सुपथों से प्राप्त करता हुआ (अदायः) [देरक्षणे] = अपने पास उन धनों को सुरक्षित नहीं किये रहता। यह इन्द्र धनों को कमाता है, उनमें अवगाहन करता है [rolls in wealth], परन्तु उन्हें जोड़कर अपने पास नहीं रक्खे रहता। इसी से यह (उग्रः) = तेजस्वी बनता है और (शतमन्यु:) = सैकड़ों प्रज्ञानोंवाला होता है। धन के प्रति आसक्ति शक्ति व प्रज्ञान को विनष्ट करती है। २. (दुश्च्यवन:) = धर्म-मार्ग से आसानी से न हटाया जा सकनेवाला यह इन्द्र (पृतनापाट्) = शत्रुसैन्यों का पराभव करता है। (अयोध्यः) = काम-क्रोध आदि इसे कभी युद्ध में जीत नहीं पाते। प्रभु कहते हैं कि यह इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] (प्रयुत्सु) = इन अध्यात्म-संग्रामों में (अस्माकं सेना: अवत) = हमारी दिव्यगणों की सेनाओं को सुरक्षित करे। धनासक्ति के अभाव में ही दिव्यगुणों का रक्षण सम्भव है।

    भावार्थ - हम कमाएँ, परन्तु उन धनों को जोड़े नहीं । इनका यज्ञादि उत्तम कर्मों में विनियोग करते हुए अपने में दिव्यगुणों का वर्धन करें।

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