अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 11
सूक्त - अप्रतिरथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - एकवीर सूक्त
अ॒स्माक॒मिन्द्रः॒ समृ॑तेषु ध्व॒जेष्व॒स्माकं॒ या इष॑व॒स्ता ज॑यन्तु। अ॒स्माकं॑ वी॒रा उत्त॑रे भवन्त्व॒स्मान्दे॑वासोऽवता॒ हवे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म्। इन्द्रः॑। सम्ऽऋ॑तेषु। ध्व॒जेषु॑। अ॒स्माक॑म्। याः। इष॑वः। ताः। ज॒य॒न्तु॒। अ॒स्माक॑म्। वी॒राः। उत्ऽत॑रे। भ॒व॒न्तु॒। अ॒स्मान्। दे॒वा॒सः॒। अ॒व॒त॒। हवे॑षु ॥१३.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु। अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्मान्देवासोऽवता हवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम्। इन्द्रः। सम्ऽऋतेषु। ध्वजेषु। अस्माकम्। याः। इषवः। ताः। जयन्तु। अस्माकम्। वीराः। उत्ऽतरे। भवन्तु। अस्मान्। देवासः। अवत। हवेषु ॥१३.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 11
विषय - चार बातें
पदार्थ -
१. (ध्वजेषु समृतेषु) = ध्वजाओं को ठीक प्रकार से प्राप्त कर लेने पर (अस्माकम्) = हम आस्तिक बुद्धिवालों का (इन्द्रः) = परमात्मा हो। हम उस प्रभु को ही अपना आश्रय मानकर चलें। ध्वजा' एक लक्ष्य का प्रतीक है और जब हम इस लक्ष्य को बना लें तब उस समय प्रभु को अपना आश्रय बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाएँ। यह प्रभु का आश्रय हमें निरुत्साहित न होने देगा। २. (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों की (या:) = जो (इषवः) = प्रेरणाएँ हैं, (ता:) = वे प्रभु की प्रेरणाएँ-अन्त:स्थित प्रभु से दिये जा रहे (निर्देश जयन्तु) = सदा विजयी हों। हम सदा इनके अनुसार ही काम करें। ३. (अस्माकम्) = हम आस्तिकवृत्तिवालों की वीरा:-वीरत्व की भावनाएँ न कि कायरता की प्रवृत्तियों उत्तरे (भवन्तु) = उत्कृष्ट हों-प्रबल हों। हमारे सब कार्य वीरता का परिचय दें। ४, हे (देवास:) = देवो! (अस्माकम्) = हम आस्तिकों को (हवेषु) = संग्रामों में (अवता) = रक्षित करो।
भावार्थ - जीवन में लक्ष्य को ओझल न होने देते हुए हम प्रभु को अपना आश्रय समझें। प्रभु-प्रेरणाओं के अनुसार हमारा जीवन चले। हम वीरत्व की भावनावाले हों। अध्यात्मसंग्रामों में देवों की रक्षा के पात्र हों। प्रभु-प्रेरणा के अनुसार जीवन को चलाता हुआ-लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ यह व्यक्ति 'अथर्वा' है-न डाँवाडोल होनेवाला। यह अथर्वा १४ से २० सूक्त तक के मन्त्रों का ऋषि है -
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