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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 53

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 6
    सूक्त - भृगुः देवता - कालः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - काल सूक्त

    का॒लो भू॒तिम॑सृजत का॒ले तप॑ति॒ सूर्यः॑। का॒ले ह॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ का॒ले चक्षु॒र्वि प॑श्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    का॒लः। भू॒तिम्। अ॒सृ॒ज॒त॒। का॒ले। त॒प॒ति॒। सूर्यः॑। का॒ले। ह॒। विश्वा॑। भू॒तानि॑। का॒ले । चक्षुः॑। वि। प॒श्य॒ति॒ ॥५३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कालो भूतिमसृजत काले तपति सूर्यः। काले ह विश्वा भूतानि काले चक्षुर्वि पश्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कालः। भूतिम्। असृजत। काले। तपति। सूर्यः। काले। ह। विश्वा। भूतानि। काले । चक्षुः। वि। पश्यति ॥५३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (काल:) = वे काल नामक प्रभु ही (भूतिम्) = इस संसार की विविध विभूतियों को-ऐश्वयों को (असृजत) = उत्पन्न करते हैं। (काले) = उस काल नामक प्रभु के आधार में ही (सूर्यः तपति) = सूर्य दीप्त हो रहा है [तस्य भासा सर्वमिदं विभाति] २. (काले ह) = निश्चय से उस काल में-प्रभु के आधार में ही (विश्वा भूतानि) = सब भूत स्थित हैं-रह रहे हैं। काले-उस प्रभु के आधार में ही (चक्षुः विपश्यति) = आँख आदि इन्द्रियाँ दर्शनादि कर्मों को करती है।

    भावार्थ - सम्पूर्ण विभूति को जन्म देनेवाले वे प्रभु ही हैं। प्रभु की दीप्ति से ही सूर्य आदि दीप्त हो रहे हैं। सब भूतों के आधार वे प्रभु हैं। प्रभु ही आँख आदि में दर्शनादि शक्तियों को रखते हैं।

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