अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 9
तेने॑षि॒तं तेन॑ जा॒तं तदु॒ तस्मि॒न्प्रति॑ष्ठितम्। का॒लो ह॒ ब्रह्म॑ भू॒त्वा बिभ॑र्ति परमे॒ष्ठिन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतेन॑। इ॒षि॒तम्। तेन॑। जा॒तम्। तत्। ऊं॒ इति॑। तस्मि॑न्। प्रति॑ऽस्थितम्। का॒लः। ह॒। ब्रह्म॑। भू॒त्वा। बिभ॑र्ति। प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् ॥५३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
तेनेषितं तेन जातं तदु तस्मिन्प्रतिष्ठितम्। कालो ह ब्रह्म भूत्वा बिभर्ति परमेष्ठिनम् ॥
स्वर रहित पद पाठतेन। इषितम्। तेन। जातम्। तत्। ऊं इति। तस्मिन्। प्रतिऽस्थितम्। कालः। ह। ब्रह्म। भूत्वा। बिभर्ति। परमेऽस्थिनम् ॥५३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 9
विषय - 'ब्रह्म'द्वारा 'ब्रह्मा' का धारण
पदार्थ -
१. (तेन) = उस काल से ही (इषितम्) = सम्पूर्ण स्रष्टव्य संसार चाहा जाता है [इष्ट-कामितम] [सो अकामयत०]। (तेन जातम्) = उस काल नामक प्रभु से ही यह उत्पन्न किया गया है (उ) = और (तत्) = वह उत्पन्न जगत् (तस्मिन् प्रतिष्ठितम्) = उस काल में ही प्रतिष्ठित है। २. (काल:) = काल ही (ब्रह्म भूत्वा) = सञ्चित सुखरूप अबाध्य परमार्थ तत्त्व होकर (परमेष्ठिनम्) = सर्वोच्च स्थिति में स्थित ब्रह्मा को (बिभर्ति) = धारण करता है। कर्मानुसार सर्वोच्च उत्तम सात्त्विक स्थितिवाला जीव ही ब्रह्मा है। यह उस काल नामक प्रभु से ही धारण किया जाता है।
भावार्थ - प्रभु ही सृष्टि की कल्पना करते हैं, इसको उत्पन्न करके इसका धारण करते हैं। 'ब्रह्म' होते हुए ये प्रभु 'ब्रह्मा' [सर्वोच्च सात्विक गतिवाले जीव] का धारण करते हैं।
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