अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
पू॒र्णः कु॒म्भोऽधि॑ का॒ल आहि॑त॒स्तं वै पश्या॑मो बहु॒धा नु सन्तः॑। स इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि प्र॒त्यङ्का॒लं तमा॒हुः प॑र॒मे व्योमन् ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्णः। कु॒म्भः। अधि॑। का॒ले। आऽहि॑तः। तम्। वै। पश्या॑मः। ब॒हु॒ऽधा। नु। स॒न्तः। सः। इ॒मा। विश्वा॑। भुव॑नानि। प्र॒त्यङ्। का॒लम्। तम्। आ॒हुः॒। प॒र॒मे। विऽओ॑मन् ॥५३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्णः कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः। स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्णः। कुम्भः। अधि। काले। आऽहितः। तम्। वै। पश्यामः। बहुऽधा। नु। सन्तः। सः। इमा। विश्वा। भुवनानि। प्रत्यङ्। कालम्। तम्। आहुः। परमे। विऽओमन् ॥५३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 3
विषय - नानारूपों में-परमानन्दरूप में
पदार्थ -
१. (पूर्ण: कुम्भ:) = यह सम्पूर्ण संसारपट-ब्रह्माण्डरूपी घट (काले अधि आहित:) = उस सब जगत् के कारणभूत, नित्य, अनवच्छिन्न परमात्मा में स्थापित है। ब्रह्माण्डरूपी घट का आधार वह प्रभु ही है। (तम्) = उस जन्यकाल के आधारभूत परमात्मा को (वै) = निश्चय से (बहुधा सन्तः) = नाना रूपों में प्रकट होते हुए को [बुद्धिमानों में बुद्धि के रूप में, बलवानों में बल के रूप में] (पश्यामः) = हम देखते हैं। (स:) = वह 'काल' नाम प्रभु ही (इमा विश्वा भुवनानि) = इन सब दृश्यमान भूतजातों को प्(रत्यङ्) = चारों ओर से व्यास करनेवाले हैं। (तं कालम्)-उस काल प्रभु को (परमे) = उत्कृष्ट (व्योमन्) = आकाशवत् निर्लेप, सर्वगत, विविध रूप से रक्षक [वि अव रक्षणे] परमानन्दप्रदायक स्व-स्वरूप में वर्तमान (आहुः) = कहते हैं।
भावार्थ - सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आधार वे प्रभु हैं। वे सारे ब्रह्माण्ड में नानारूपों में रह रहे हैं। सब भुवनों में व्याप्त हैं। अपने आकाशवत् निर्लेप परमानन्दस्वरूप में स्थित हैं।
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