अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगुः
देवता - कालः
छन्दः - निचृत्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - काल सूक्त
का॒लोऽमूं दिव॑मजनयत्का॒ल इ॒माः पृ॑थि॒वीरु॒त। का॒ले ह॑ भू॒तं भव्यं॑ चेषि॒तं ह॒ वि ति॑ष्ठते ॥
स्वर सहित पद पाठका॒लः। अ॒भूम्। दिव॑म्। अ॒ज॒न॒य॒त्। का॒लः। इ॒माः। पृ॒थि॒वीः। उ॒त। का॒ले। ह॒। भू॒तम्। भव्य॑म्। च॒। इ॒षि॒तम्। ह॒। वि। ति॒ष्ठ॒ते॒ ॥५३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
कालोऽमूं दिवमजनयत्काल इमाः पृथिवीरुत। काले ह भूतं भव्यं चेषितं ह वि तिष्ठते ॥
स्वर रहित पद पाठकालः। अभूम्। दिवम्। अजनयत्। कालः। इमाः। पृथिवीः। उत। काले। ह। भूतम्। भव्यम्। च। इषितम्। ह। वि। तिष्ठते ॥५३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 5
विषय - जनिता-धाता
पदार्थ -
१. (काल:) = वह काल नामक प्रभु ही (अमूं दिवम्) = उस विप्रकृष्ट द्युलोक को (अजनयत्) = उत्पन्न करते (उत) = और (काल:) = वे काल नामक प्रभु ही (इमाः पृथिवी:) = इन 'अवमा, मध्यम, व परमा' पृथिवियों को पैदा करते हैं। २. काले उस काल नामक प्रभु में ह-ही (भूतम्) = भूतकालावच्छिन्न, भव्यम् भविष्यत्कालावच्छिन, (च) = और (इषितम्) = इष्ट-इष्यमाण यह वर्तमानकालावच्छिन्न जगत् निश्चय से (वितिष्ठते) = विशेषेण आश्रित है।
भावार्थ - प्रभु ही धुलोक व पृथिवी को पैदा करते हैं। वे ही भूत, भविष्य व वर्तमान लोकों के आधार हैं।
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