अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
स॒प्त च॒क्रान्व॑हति का॒ल ए॒ष स॒प्तास्य॒ नाभी॑र॒मृतं॒ न्वक्षः॑। स इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नान्यञ्जत्का॒लः स ई॑यते प्रथ॒मो नु दे॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त। च॒क्रान्। व॒ह॒ति॒। का॒लः। ए॒षः। स॒प्त। अ॒स्य। नाभीः॑। अ॒मृत॑म्। नु। अक्षः॑। सः। इ॒मा। विश्वा॑। भुव॑नानि। अ॒ञ्ज॒त्। का॒लः। सः। ई॒य॒ते॒। प्र॒थ॒मः। नु। दे॒वः ॥५३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त चक्रान्वहति काल एष सप्तास्य नाभीरमृतं न्वक्षः। स इमा विश्वा भुवनान्यञ्जत्कालः स ईयते प्रथमो नु देवः ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त। चक्रान्। वहति। कालः। एषः। सप्त। अस्य। नाभीः। अमृतम्। नु। अक्षः। सः। इमा। विश्वा। भुवनानि। अञ्जत्। कालः। सः। ईयते। प्रथमः। नु। देवः ॥५३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
विषय - कर्ता-संहर्ता
पदार्थ -
१. (एषः कालः) = यह सबका संकलन करनेवाला प्रभु (सप्त चक्रान्) = सात चक्राकार में गति करनेवाले लोकों को (वहति) = धारण करता है। 'भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् इन व्याहृति शब्दों में इन सात लोकों का प्रतिपादन हुआ है। (सप्त) = सात ही (अस्य) = इस प्रभु के (नाभि:) = [नह बन्धने] बन्धन के साधन हैं। सात छन्दोमयी वेदवाणियाँ हमें उस प्रभु को प्राप्त करानेवाली होती है। इन वेदवाणियों का (अक्ष:) = अध्यक्ष प्रभु (नु) = निश्चय से (अमृतम्) = अमृत है। २. (स:) = वह अमृत प्रभु ही (इमा विश्वा भुवनानि) = इन सब लोकों को (अञ्जत्) = व्यक्त करता हुआ-इनकी सृष्टि करता हुआ (सः) = [षोऽन्तकर्मणि स्यति इति] अन्त करनेवाला है। (काल:) = वह इन सबका फिर से संकलन कर लेता है। (नु) = निश्चय वह (प्रथमः देवः) = सर्वप्रथम देव प्रभु ईयते तत्त्वज्ञों से जाना जाता है। तत्त्वज्ञ पुरुष उसे सृष्टिकर्ता व संहर्ता के रूप में देखते हैं।
भावार्थ - वे प्रभु ही सातों लोकों का धारण करते हैं। वे ही इनको प्रकट करते हैं और अन्तत: इन्हें प्रलीन करनेवाले होते हैं। तत्त्वज्ञ लोग ही प्रभु को इस रूप में देखते हैं।
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