अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
सूक्त - भरद्वाजः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
इ॒दमि॑न्द्र शृणुहि सोमप॒ यत्त्वा॑ हृ॒दा शोच॑ता॒ जोह॑वीमि। वृ॒श्चामि॒ तं कुलि॑शेनेव वृ॒क्षं यो अ॒स्माकं॒ मन॑ इ॒दं हि॒नस्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । इ॒न्द्र॒ । शृ॒णु॒हि॒ । सो॒म॒ऽप॒ । यत् । त्वा॒ । हृ॒दा । शोच॑ता । जोह॑वीमि । वृ॒श्चामि॑ । तम् । कुलि॑शेनऽइव । वृ॒क्षम् । य: । अ॒स्माक॑म् । मन॑: । इ॒दम् । हि॒नस्ति॑ ॥१२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमिन्द्र शृणुहि सोमप यत्त्वा हृदा शोचता जोहवीमि। वृश्चामि तं कुलिशेनेव वृक्षं यो अस्माकं मन इदं हिनस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । इन्द्र । शृणुहि । सोमऽप । यत् । त्वा । हृदा । शोचता । जोहवीमि । वृश्चामि । तम् । कुलिशेनऽइव । वृक्षम् । य: । अस्माकम् । मन: । इदम् । हिनस्ति ॥१२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
विषय - अघशंस-वश्चन
पदार्थ -
१.हे (सोमप) = मेरे सोम [वीर्य] का रक्षण करनेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (यत्) = जब (शोचता) = [शुच् to shine, to be pure or clean] दैवी सम्पत्ति से चमकते हुए पवित्र (हृदा) = हृदय से (त्वा) = आपको (जोहवीमि) = पुकारता हूँ तो आप (इदम्) = मेरी इस प्रार्थना को (शृणुहि) = सुनिए। आपकी कृपा से मेरी यह कामना पूर्ण हो कि मैं (तम्) = उस पुरुष को उसी प्रकार (वृश्चामि) = छिन्न कर दूं (इव) = जैसे कि (कुलिशेन) = वज्र से (वृक्षम्) = वृक्ष को काट डालते हैं, (य:) = जो व्यक्ति (अस्माकम्) = हमारे इर्द (मन:) = सोमरक्षण के द्वारा जीवन को दीप्त बनाने की भावना को (हिनस्ति) = नष्ट करता है। २. अघशंस व्यक्ति सोमरक्षण के महत्त्व की भावना को नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। वे 'मैथुन आदि को ('प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्') = कहकर इसे स्वाभाविक कहते हैं। बलात् निरोध से स्नायु-संस्थान के विकृत हो जाने का भय है, अत: सोमरक्षण सदा ठीक ही हो ऐसी बात नहीं है'। इसप्रकार जो अघशंस पुरुष हमारी शुभ वृत्ति को नष्ट करना चाहते हैं, उन्हें हम समाप्त कर दें, उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छिन्न कर लें।
भावार्थ -
हम अपशंस पुरुषों को समाप्त कर दें, अर्थात् उनसे सम्बन्ध न रक्खें, अन्यथा हमारी शुभ वृत्तियों को वे समाप्त कर देंगे।
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