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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - आदित्यगणः, वसुगणः, पितरः, अङ्गिरसः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अ॑शी॒तिभि॑स्ति॒सृभिः॑ साम॒गेभि॑रादि॒त्येभि॒र्वसु॑भि॒रङ्गि॑रोभिः। इ॑ष्टापू॒र्तम॑वतु नः पितॄ॒णामामुं द॑दे॒ हर॑सा॒ दैव्ये॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒शी॒तिऽभि॑: । ति॒सृभि॑: । सा॒म॒ऽगेभि॑: । आ॒दि॒त्येभि॑: । वसु॑ऽभि: । अङ्गि॑र:ऽभि: । इ॒ष्टा॒पू॒र्तम् । अ॒व॒तु॒ । न॒: । पि॒तृ॒णाम् । आ । अ॒मुम् । द॒दे॒ । हर॑सा । दैव्ये॑न ॥१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अशीतिभिस्तिसृभिः सामगेभिरादित्येभिर्वसुभिरङ्गिरोभिः। इष्टापूर्तमवतु नः पितॄणामामुं ददे हरसा दैव्येन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अशीतिऽभि: । तिसृभि: । सामऽगेभि: । आदित्येभि: । वसुऽभि: । अङ्गिर:ऽभि: । इष्टापूर्तम् । अवतु । न: । पितृणाम् । आ । अमुम् । ददे । हरसा । दैव्येन ॥१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १.(न:) = हमें (पितृणाम्) = माता-पिता आदि के उनसे किये जानेवाले (इष्टापूर्तम्) = इष्ट और पूर्त यज्ञ व वापी, कूप, तड़ागादि के निर्माण के कार्य (अवतु) = प्रीणित करनेवाले हों। हम भी अपने पूर्वजों की भाँति इन इष्ट-पूर्त आदि कार्यों को करनेवाले हों। (अमम) = इस इष्ट व पूर्त को मैं आ (ददे) = सर्वथा ग्रहण करता हूँ, जिससे मैं (दैव्येन हरसा) = दिव्य तेज को प्राप्त करनेवाला बन सकूँ। दिव्य तेज के हेतु से मैं इष्टापूर्त को अपनाता हूँ। २. इसलिए मैं भी इष्टापूर्त को अपनाता हूँ कि (तिसृभिः अशीतिभि:) = [अश् व्याप्ती]-तीनों व्यासियों के हेतु से, अर्थात् शरीर, मन व बुद्धि के तेज का मैं अपने में व्यापन कर सकूँ, (सामगेभि:) = साम का गान करने के हेतु से अर्थात् मैं साममन्त्रों से प्रभु का गायन करनेवाला बन सकूँ, (आदित्येभिः) = आदित्यों के हेतु से-मैं गुणों का आदान करनेवाला बनूं। (वसुभि:) = वसुओं के हेतु से-उत्तम निवासवाला बनूं और (अङ्गिरोभि:) = अङ्गिरसों के हेतु से, अर्थात् मैं अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला बन पाँका इष्ट व पूर्त आदि कों में लगने का यह परिणाम है कि [क] शरीर, मन व बुद्धि का तेज प्राप्त होता है [ख] प्रभु-उपासना की वृत्ति उत्पन्न होती है, [ग] गुणों के ग्रहण का भाव उत्पन्न होता है, [घ] शरीर में उत्तमता से निवास होता है, [ङ] अङ्ग-प्रत्यङ्ग रसमय बना रहता है और [च] दिव्य तेज प्राप्त होता है।

    भावार्थ -

    इष्ट व पूर्त हमारे शरीर, मन व बुद्धि को तेजस्वी बनाकर हमें दिव्य तेजबाला बनाते हैं।

     

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