अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
सूक्त - भरद्वाजः
देवता - पितरः सौम्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
द्यावा॑पृथिवी॒ अनु॒ मा दी॑धीथां॒ विश्वे॑ देवासो॒ अनु॒ मा र॑भध्वम्। अङ्गि॑रसः॒ पित॑रः॒ सोम्या॑सः पा॒पमार्छ॑त्वपका॒मस्य॑ क॒र्ता ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । अनु॑ । मा॒ । आ । दी॒धी॒था॒म् । विश्वे॑ । दे॒वा॒स॒: । अनु॑ । मा॒ । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । अङ्गि॑रस: । पित॑र: । सोम्या॑स: । पा॒पम् । आ । ऋ॒च्छ॒तु॒ । अ॒प॒ऽका॒मस्य॑ । क॒र्ता ॥१२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावापृथिवी अनु मा दीधीथां विश्वे देवासो अनु मा रभध्वम्। अङ्गिरसः पितरः सोम्यासः पापमार्छत्वपकामस्य कर्ता ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावापृथिवी इति । अनु । मा । आ । दीधीथाम् । विश्वे । देवास: । अनु । मा । आ । रभध्वम् । अङ्गिरस: । पितर: । सोम्यास: । पापम् । आ । ऋच्छतु । अपऽकामस्य । कर्ता ॥१२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
विषय - दीप्ति व शक्ति
पदार्थ -
१. (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (मा अनुदीधीथाम्) = मेरे अनुकूल होकर दीप्त हों। मेरे शरीर में मस्तिष्करूप झुलोक ज्ञान के सूर्य से चमके और पृथिवीरूप शरीर तेजस्विता से दीस बने । २. (विश्वेदेवास:) = सब देव (मा अनुरभध्वम्) = मेरे अनुकूल होकर कार्य करनेवाले हों। दिशाएँ मेरे श्रोत्रों को उपश्रुति [श्रवण शक्ति] दें, सूर्य आँखों में दृष्टिशक्ति दे, वायु प्राणशक्ति का वर्धन करे और अग्नि वाणी की शक्ति को दीस करे। इसीप्रकार अन्यान्य देवता भिन्न-भिन्न अङ्गों को सशक्त बनानेवाले हों। ३. (अङ्गिरस:) = अङ्गिरस (पितरः) = पितर व (सोम्यास:) = सौम्य ये सब भी मेरे अनुकूल होकर कार्य करनेवाले हों। अङ्गिरस मेरे अङ्गों को रसमय बनाएँ, पितर मेरा रक्षण करें व सौम्य मुझे विनीत बनाएँ। ४. इसप्रकार मेरे जीवन में सदा शुभ इच्छाएँ बनी रहें। (अपकामस्य कर्ता) = अशुभ इच्छाएँ करनेवाला व्यक्ति सदा (पापम् आर्छन्तु) = पाप को प्राप्त करे। अशुभ इच्छाओं का परिणाम 'अशुभ कर्म' तो होगा ही।
भावार्थ -
मेरी इच्छाएँ सदा शुभ बनी रहें, जिससे शुभ को करता हुआ मैं चमकूँ और शक्तिशाली बनें।
इस भाष्य को एडिट करें