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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    आ द॑धामि ते प॒दं समि॑द्धे जा॒तवे॑दसि। अ॒ग्निः शरी॑रं वेवे॒ष्ट्वसुं॒ वागपि॑ गच्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । द॒धा॒मि॒ । ते॒ । प॒दम् । सम्ऽइ॑ध्दे । जा॒तऽवे॑दसि । अ॒ग्नि: । शरी॑रम् । वे॒वे॒ष्टु॒ । असु॑म् । वाक् । अपि॑ । ग॒च्छ॒तु॒ ॥१२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ दधामि ते पदं समिद्धे जातवेदसि। अग्निः शरीरं वेवेष्ट्वसुं वागपि गच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । दधामि । ते । पदम् । सम्ऽइध्दे । जातऽवेदसि । अग्नि: । शरीरम् । वेवेष्टु । असुम् । वाक् । अपि । गच्छतु ॥१२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (ते पदम्) = तरे पाँच को-तेरी गति को (समिद्धे) = दीस (जातवेदसि) = ज्ञानाग्नि में [सब विषयों के जाननेवाले ज्ञान में] (आदधामि) = स्थापित करता हूँ, अर्थात् तेरे सब कार्य ज्ञानपूर्वक हों। ज्ञानपूर्वक होनेवाले कर्म पवित्र होते हैं। २. (अग्नि:) = यह ज्ञानाग्नि (शरीरम्) = तेरे शरीर को (वेवेष्ट) = व्याप्त करले, अर्थात् तेरी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ खुद ही ज्ञान-प्राप्ति में लगी हों और (वाक्) = तेरी वाणी (असुम् अपि गच्छतु) = प्राणशक्ति की ओर जानेवाली हो, तेरी वाणी में शक्ति हो। वस्तुत: जो पुरुष ज्ञानी बनता है, उसकी वाणी में बल होता है। वह शब्दों का प्रयोग इसप्रकार करता है कि वे प्रभावजनक होते हैं।

    भावार्थ -

    हमारी सब क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक हों। ज्ञान से हमारा शरीर व्याप्त हो और हमारी वाणी में बल हो।

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