अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
सूक्त - भरद्वाजः
देवता - यमसादनम्, ब्रह्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
स॒प्त प्रा॒णान॒ष्टौ म॒न्यस्तांस्ते॑ वृश्चामि॒ ब्रह्म॑णा। अया॑ य॒मस्य॒ साद॑नम॒ग्निदू॑तो॒ अरं॑कृतः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । प्रा॒णान् । अ॒ष्टौ । म॒न्य: । तान् । ते॒ । वृ॒श्चा॒मि॒ । ब्रह्म॑णा । अया॑: । य॒मस्य॑ । सद॑नम् । अ॒ग्निऽदू॑त: । अर॑म्ऽकृत: ॥१२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त प्राणानष्टौ मन्यस्तांस्ते वृश्चामि ब्रह्मणा। अया यमस्य सादनमग्निदूतो अरंकृतः ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । प्राणान् । अष्टौ । मन्य: । तान् । ते । वृश्चामि । ब्रह्मणा । अया: । यमस्य । सदनम् । अग्निऽदूत: । अरम्ऽकृत: ॥१२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
विषय - अग्रिदूत-अरंकृत
पदार्थ -
१. तेरे (सप्त प्राणान) = सप्त शीर्षण्य प्राणों को 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्-कानों, नासिका-छिद्रों, आँखों व मुख को' (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा (वृश्चामि) = सब विषयों से पृथ्क करता हूँ [Cur asunder] । ज्ञान प्राप्त करके तू आँख आदि को विषयासक्त नहीं होने देता। इसप्रकार तेरे इन सप्त प्राणों को विषयों से पृथक् करके मैं (तान्) = उन (ते) = तेरे (अष्टौ) = आठों (मन्य:) = [मान्या knowledge] ज्ञान-केन्द्रों को-शरीरस्थ आठों चक्रों को[अष्टाचक्रा नवद्वारा] (वृश्चामि) = छीलकर तीक्ष्ण बनाता हूँ-उनके मलों को दूर करके उन्हें दीस करता हूँ। २. इसप्रकार इन्द्रियों के विषयों से पृथक् होने तथा ज्ञानकेन्द्रों के दीप्त होने पर तू (यमस्य) = उस नियामक प्रभु के (सादनम्) = गृह को अया-प्राप्त होता है-तू ब्रह्मस्थ बनता है। वह तू जो (अग्रिदूतः) = उस अग्रिरूप दूतवाला है, अर्थात् प्रभु से सन्देश प्राप्त करनेवाला है और (अरंकृतः) = ज्ञान व दिव्य गुणों से अलंकृत हुआ है। ३. 'मन को मार लेना' इस वाक्यांश का अर्थ मन को काबू कर लेना है। इसीप्रकार इन्द्रियों व ज्ञानकेन्द्रों के वृश्चन [cutting] का भाव इन्हें पूर्णरूप से वश में कर लेना ही है। जो इन्हें ज्ञान के द्वारा स्वाधीन कर लेता है वह अपने जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करनेवाला होता है। यह प्रभु को प्राप्त करता है।
भावार्थ -
इन्द्रियों के संयम और ज्ञानकेन्द्रों के दीप्त होने से मनुष्य अपने जीवन को दिव्य गुणों से अलंकृत करके अन्त में प्रभु को पा लेता है।
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