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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - मरुद्गणः, ब्रह्मद्विट् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अती॑व॒ यो म॑रुतो॒ मन्य॑ते नो॒ ब्रह्म॑ वा॒ यो निन्दि॑षत्क्रि॒यमा॑णम्। तपूं॑षि॒ तस्मै॑ वृजि॒नानि॑ सन्तु ब्रह्म॒द्विषं॒ द्यौर॑भि॒संत॑पाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ऽइव । य: । म॒रु॒त॒: । मन्य॑ते । न॒: । ब्रह्म॑ । वा॒ । य: । निन्दि॑षत् । क्रि॒यमा॑णम् । तपूं॑षि । तस्मै॑ । वृ॒जि॒नानि॑ । स॒न्तु॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑म् । द्यौ : । अ॒भि॒ऽसंत॑पाति ॥१२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतीव यो मरुतो मन्यते नो ब्रह्म वा यो निन्दिषत्क्रियमाणम्। तपूंषि तस्मै वृजिनानि सन्तु ब्रह्मद्विषं द्यौरभिसंतपाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतिऽइव । य: । मरुत: । मन्यते । न: । ब्रह्म । वा । य: । निन्दिषत् । क्रियमाणम् । तपूंषि । तस्मै । वृजिनानि । सन्तु । ब्रह्मऽद्विषम् । द्यौ : । अभिऽसंतपाति ॥१२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. हे (मरुत:) = प्राणो! (य:) = जो काम-क्रोधादि (न:) = हमारा शत्रु अतीव (मन्यते) = अपने को बहुत ही प्रबल मानता है और हमपर आक्रमण करता है (वा) = तथा (यः) = जो (ब्रह्म) = मन्त्रों द्वारा (क्रियमाणम्) = की जाती हुई स्तुतियों को (निन्दिषत) = निन्दित करता है, (तस्मै) = उसके लिए (तंपुषी) = तप व तापक अस्त्र (वृजिनानि) = बाधक हों। तप के द्वारा काम आदि शत्रुओं को हम दूर कर पाएँ और राजा तापक अस्त्रों द्वारा स्तुति आदि कार्यों की निन्दा व विघात करनेवालों को राष्ट्र में से दूर करे। २. (ब्रह्मद्विषम्) = ज्ञान व प्रभुस्तवन में प्रीति न रखनेवाले को (द्यौः) = ज्ञान का प्रकाश (अभिसन्तपति) = पीड़ित करता है। जैसे उल्लू के लिए सूर्य का प्रकाश सुख देनेवाला नहीं होता, इसीप्रकार ब्रह्मद्विट के लिए ज्ञान का प्रकाश सुखद नहीं होता। ये ब्रह्माहिट लोग ब्रह्म-प्राप्ति में तत्पर अन्य लोगों को भी निरुत्साहित करने का प्रयत्न करते हैं। राजा को चाहिए कि इन लोगों को दण्डित करे । उचित दण्ड के द्वारा इन्हें ज्ञान व स्तुति की निन्दा के कार्य से रोके। इसीप्रकार तप हमारे जीवन पर आक्रमण करनेवाले काम आदि शत्रुओं को रोकनेवाला हो।

    भावार्थ -

    तप काम-क्रोधादि को रोके और राजा के तापक अस्त्र ब्रह्मविद लोगों को नियंत्रित करनेवाले हों।

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