अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
इन्द्रः॑ स्व॒र्षा ज॒नय॒न्नहा॑नि जि॒गायो॒शिग्भिः॒ पृत॑ना अभि॒ष्टिः। प्रारो॑चय॒न्मन॑वे के॒तुमह्ना॒मवि॑न्द॒ज्ज्योति॑र्बृह॒ते रणा॑य ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । स्व॒:ऽसा । ज॒नय॑न् । अहा॑नि । जि॒गाय॑ । उ॒शिक्ऽभि॑: । पृत॑ना: । अ॒भि॒ष्टि: ॥ प्र । अ॒रो॒च॒यत् । मन॑वे । के॒तुम् । अह्ना॑म् । अवि॑न्दत् । ज्योति॑: । बृ॒ह॒ते । रणा॑य ॥११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । स्व:ऽसा । जनयन् । अहानि । जिगाय । उशिक्ऽभि: । पृतना: । अभिष्टि: ॥ प्र । अरोचयत् । मनवे । केतुम् । अह्नाम् । अविन्दत् । ज्योति: । बृहते । रणाय ॥११.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
विषय - स्वर्षाः अभिष्टिः
पदार्थ -
१. (स्वर्षाः) = स्वर्ग को प्राप्त करानेवाला (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशालौ प्रभु (अभिष्टिः) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला है। यह (अहानि जनयन्) = प्रकाशमय दिनों को प्रादुर्भूत करता हुआ अज्ञानान्धकारमयी रात्रियों को दूर करता हुआ (उशिग्भिः) = युद्ध की कामनावाले आसुरभावों से युद्ध करके (पृतना:) = शत्रु-सैन्यों को (जिगाय) = जीतता है। २. प्रभु (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (अल्लाम्) = दिनों के (केतुम्) = प्रज्ञापक सूर्य को (प्रारोचयत्) = आकाश में दीप्त करते हैं-मस्तिष्करूप धुलोक में ज्ञानसूर्य को उदित करते हैं और (बृहते रणाय) = महान् रमणके लिए-मोक्षसुख में विचरने के लिए (ज्योति:) = ज्ञानज्योति को (अविन्दत्) = प्राप्त कराते है।
भावार्थ - प्रभु ही उपासकों के इदयों में प्रकाश करते हुए वासनान्धकार को विनष्ट करते हैं। विचारशील पुरुषों के बदयों में ज्ञानज्योति को दीस करके उन्हंि मोक्षसुख प्रास कराते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें