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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११

    म॒हो म॒हानि॑ पनयन्त्य॒स्येन्द्र॑स्य॒ कर्म॒ सुकृ॑ता पु॒रूणि॑। वृ॒जने॑न वृजि॒नान्त्सं पि॑पेष मा॒याभि॑र्द॒स्यूँर॒भिभू॑त्योजाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒ह: । म॒हानि॑ । प॒न॒य॒न्ति॒ । अ॒स्य॒ । इन्द्र॑स्य । कर्म॑ । सऽकृ॑ता । पु॒रूणि॑ । वृ॒जने॑न । वृ॒जि॒नान् । सम् । पि॒पे॒ष॒ । मा॒याभि॑:। दस्यू॑न् । अ॒भिभू॑तिऽओजा: ॥११.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महो महानि पनयन्त्यस्येन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरूणि। वृजनेन वृजिनान्त्सं पिपेष मायाभिर्दस्यूँरभिभूत्योजाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मह: । महानि । पनयन्ति । अस्य । इन्द्रस्य । कर्म । सऽकृता । पुरूणि । वृजनेन । वृजिनान् । सम् । पिपेष । मायाभि:। दस्यून् । अभिभूतिऽओजा: ॥११.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (अस्य) = इस (मह:) = महान्-गुणों से प्रवृद्ध (इन्द्रस्य) = शक्तिशाली कर्मों के करनेवाले प्रभु के (महानि) = महान् (सुकृता) = सुष्टु सम्पादित (पुरुणि) = पालक व पूरक (कर्म) = कर्मों को (पनयन्ति) = स्तोता लोग स्तुत करते हैं। प्रभु के महान् कर्म सचमुच स्तुति के योग्य हैं। २. प्रभु (वृजनेन) = शत्रुओं के आवर्जक बल से [विनाशक बल से] (वृजिनान) = पापरूप असुरों को (संपिपेष) = सम्यक् चूर्ण कर देते हैं। (अभिभूत्योजा:) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाले बल से युक्त वे प्रभु (मायाभि:) = अपनी शक्तियों व प्रज्ञानों से (दस्यून) = विनाशक शत्रुओं को [दसु उपक्षये] पीस डालते हैं।

    भावार्थ - प्रभु के कर्म महान् व हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। प्रभु बल से आसुर भावों को पीस डालते हैं, प्राज्ञानों द्वारा दस्युओं का विनाश कर देते हैं।

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