Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 11

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११

    इन्द्र॒स्तुजो॑ ब॒र्हणा॒ आ वि॑वेश नृ॒वद्दधा॑नो॒ नर्या॑ पु॒रूणि॑। अचे॑तय॒द्धिय॑ इ॒मा ज॑रि॒त्रे प्रेमं वर्ण॑मतिरच्छु॒क्रमा॑साम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । तुज॑: । ब॒र्हणा॑: । आ । वि॒वे॒श॒ । नृ॒ऽवत् । दधा॑न: । नर्या॑ । पु॒रूण‍ि॑ ॥ अचे॑तयत् । धिय॑: । इ॒मा: । ज॒रि॒त्रे । प्र । इ॒मम् । वर्ण॑म् । अ॒ति॒र॒त् । शु॒क्रम् । आ॒सा॒म् ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्तुजो बर्हणा आ विवेश नृवद्दधानो नर्या पुरूणि। अचेतयद्धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । तुज: । बर्हणा: । आ । विवेश । नृऽवत् । दधान: । नर्या । पुरूण‍ि ॥ अचेतयत् । धिय: । इमा: । जरित्रे । प्र । इमम् । वर्णम् । अतिरत् । शुक्रम् । आसाम् ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक प्रभु (बर्हणा:) = अभिवृद्ध-बढ़ी हुई (तुज:) = हिंसक शत्रुसेनाओं में (आविवेश) = ऐसे प्रविष्ट होते हैं, (नवृत) = जैसकि एक सेनानी शत्रु-सेनाओं में युद्ध के लिए प्रवेश करता है, अर्थात् प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं। ये प्रभु (पुरूणि) = बहुत (नर्या) = नरहितकारी कार्यों को (दभान:) = धारण करते हैं। २. ये प्रभु (जरित्रे) = स्तोता के लिए (इमाः धियः) = इन युद्धियों को (अचेतयत्) = चेतनायुक्त करते हैं तथा (आसाम्) = इनके (इमं शुक्रं वर्णम्) = दीप्त रूप को प्रातिरत् बढ़ाते हैं।

    भावार्थ - प्रभु हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करते हैं और हमारी बुद्धियों को चेताते हुए उन्हें दीसरूप बनाते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top