अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
यु॒धेन्द्रो॑ म॒ह्ना वरि॑वश्चकार दे॒वेभ्यः॒ सत्प॑तिश्चर्षणि॒प्राः। वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने अस्य॒ तानि॒ विप्रा॑ उ॒क्थेभिः॑ क॒वयो॑ गृणन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒धा । इन्द्र॑: । म॒हा । वरि॑व: । च॒का॒र॒ । दे॒वेभ्य॑: । सत्ऽप॑ति: । च॒र्ष॒णि॒ऽप्रा: ॥ वि॒वस्व॑त: । सद॑ने । अ॒स्य॒ । तानि॑ । विप्रा॑: । उ॒क्थेभि॑: । क॒वय॑: । गृ॒ण॒न्ति॒ ॥११.७॥
स्वर रहित मन्त्र
युधेन्द्रो मह्ना वरिवश्चकार देवेभ्यः सत्पतिश्चर्षणिप्राः। विवस्वतः सदने अस्य तानि विप्रा उक्थेभिः कवयो गृणन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठयुधा । इन्द्र: । महा । वरिव: । चकार । देवेभ्य: । सत्ऽपति: । चर्षणिऽप्रा: ॥ विवस्वत: । सदने । अस्य । तानि । विप्रा: । उक्थेभि: । कवय: । गृणन्ति ॥११.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
विषय - युधा देवेभ्यः वरिवः चकार
पदार्थ -
२. (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु युधा युद्ध के द्वारा आसुरवृत्तियों को युद्ध में विनष्ट करने के द्वारा (मह्ना) = अपनी महिमा से (देवेभ्य:) = देववृत्तिवाले पुरुषों के लिए (वरिवः) = वरणीय धन को (चकार) = सम्पादित करते हैं। प्रभु (सत्पतिः) = सज्जनों के रक्षक हैं। (चर्षणिना:) = श्रमशील मनुष्यों की कामनाओं को [प्रा पूरणे] पूर्ण करनेवाले हैं। २. (विवस्वत:) = विशेषेण अग्निहोत्र आदि कर्मों के लिए निवास करते हुए यजमान के (सदने) = घर में (विप्रा:) = मेधावी (कवयः) = क्रान्तप्रज्ञ ज्ञानी पुरुष (अस्य) = इस इन्द्र के (तानि) = उन प्रसिद्ध वृत्रवध आदि कर्मों को (उक्थेभि:) = स्तोत्रों के द्वारा गृणन्ति उच्चरित करते हैं। ये ज्ञानी यज्ञशील पुरुषों के गृह में सम्मिलित होकर प्रभु के गुणों का गायन करते हैं।
भावार्थ - प्रभु आसुरवृत्तियों को विनष्ट करके देवों के लिए वरणीय धन प्राप्त कराते हैं। यज्ञशील पुरुष के घर में एकत्र होकर ज्ञानी लोग प्रभु की महिमा का गायन करते हैं।
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