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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 16
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒ कपृ॑त्। सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । वि॒ऽजृम्भ॑ते । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्। सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । स: । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु से रक्षित होकर जो व्यक्ति प्रभु के ध्यान में लगता है और (यस्य) = जिसका (सक्थि) =[सच् समवाये] प्रभु से मेलवाला व (कपृत्) = अपने में आनन्द का पूरण करनेवाला मन (अन्तर:) = अन्दर ही (आरम्बते) = स्थिर होता है-आश्नय करता है, (न स ईशे) = वह ही ईश नहीं है, अपितु (स इत् ईशम्) = वास्तविक ईश तो यह है (निषेदुष:) = नम्रता से आचार्यचरणों में बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [रोमणि शेते, सामानि यस्य लोमानित] साममन्त्रों में निवास करनेवाला मन (विजृम्भते) = विकसित होता है, अर्थात् जिसका मन ऋचाओं व यजुर्मन्त्रों का अध्ययन करके साममन्त्रों में निवास करता है, दूसरे शब्दों में जिसका मन सम्पूर्ण ज्ञान में अवस्थित होता है। २. यह ज्ञानी अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं।

    भावार्थ - जैसे ध्यानी पुरुष मन का ईश बनता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी मन का वास्तविक ईश बनता है।

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