अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 17
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते। सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठन । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । विऽजृम्भ॑ते ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्यो॑ । कपृ॑त् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते। सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा क्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठन । स: । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्यो । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 17
विषय - ज्ञान व ध्यान
पदार्थ -
१. गतमन्त्र की भावना को ही क्रम बदलकर कहते हैं कि (न स ईशे) = वह ही ईश नहीं है (निषेदुष:) = आचार्यचरणों में नम्रता से बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [सामानि यस्य लोमानि] साममन्त्रों में निवास करनेवाला मन (विजृम्भते) = ज्ञान के दृष्टिकोण से अधिकाधिक विकसित होता चलता है, (स इत्) = वह भी (ईशे) = ईश है, (यस्य) = जिसका (सक्थि) = प्रभु से मेलवाला (कपूत) = परिणामत: अपने में आनन्द को भरनेवाला मन (अन्तरा) = अन्दर ही (आरम्बते) = स्थिर होता है। अन्त:स्थित हुआ-हुआ मन प्रभु का आश्रय करता है। २. यह मन अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्य शाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार में उत्कृष्ट हैं।
भावार्थ - जहाँ ज्ञान मनुष्य को विषयों के तात्त्विक स्वरूप का चिन्तन कराके उनसे ऊपर उठाता है, वहाँ ध्यान भी प्रभु-प्राप्ति का आनन्द देकर वैषयिक आनन्द की तुच्छता को स्पष्ट कर देता है।
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