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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    287

    न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते। सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । विऽजृम्भ॑ते ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्यो॑ । कपृ॑त् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते। सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा क्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । स: । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्यो । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए [आलसी] का (रोमशम्) रोमवाला मस्तक (विजृम्भते) जँभाई लेता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) शिर पालनेवाला कपाल (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जङ्घाओं के बीच [ध्यान में] (रम्बते) नीचे लटकता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (श्विस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य आलस्य से शिर झुकाकर ओंघने लगते हैं, उनको विद्या, सुवर्ण और राज्य आदि ऐश्वर्य नहीं मिलता, ऐश्वर्य उनको मिलता है, जो शिर को झुकाकर अपना आपा सोचते हुए इन्द्र बनते हैं ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(विजृम्भते) आलस्येन जृम्भां मुखविकाशं करोति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    ज्ञान व ध्यान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की भावना को ही क्रम बदलकर कहते हैं कि (न स ईशे) = वह ही ईश नहीं है (निषेदुष:) = आचार्यचरणों में नम्रता से बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [सामानि यस्य लोमानि] साममन्त्रों में निवास करनेवाला मन (विजृम्भते) = ज्ञान के दृष्टिकोण से अधिकाधिक विकसित होता चलता है, (स इत्) = वह भी (ईशे) = ईश है, (यस्य) = जिसका (सक्थि) = प्रभु से मेलवाला (कपूत) = परिणामत: अपने में आनन्द को भरनेवाला मन (अन्तरा) = अन्दर ही (आरम्बते) = स्थिर होता है। अन्त:स्थित हुआ-हुआ मन प्रभु का आश्रय करता है। २. यह मन अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्य शाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार में उत्कृष्ट हैं।

    भावार्थ

    जहाँ ज्ञान मनुष्य को विषयों के तात्त्विक स्वरूप का चिन्तन कराके उनसे ऊपर उठाता है, वहाँ ध्यान भी प्रभु-प्राप्ति का आनन्द देकर वैषयिक आनन्द की तुच्छता को स्पष्ट कर देता है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह वृषाकपि (न ईशे) वर्षा का अधीश्वर नहीं, (निषेदुषः यस्य) एक स्थान में स्थित जिस वृषाकपि का (रोमशम्) लोमसमूह-सदृश रश्मिसमूह, (विजृम्भते) विशेषरूप में सर्वत्र विचरता है, अपितु (सः) वह इन्द्र अर्थात् विद्युत् (इत्) ही (ईशे) वर्षा की अधीश्वरी है (यस्य) जिसका कि (कपृत्) जल की पूर्ति करनेवाला मेघ (सक्थ्या) आकर्षण द्वारा परस्पर संसक्त द्युलोक और भूलोक के (अन्तरा) मध्य में अर्थात् अन्तरिक्ष में (रम्बते) गर्जता है।

    टिप्पणी

    [यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अन्तरिक्ष में वर्तमान मृदादि-कण जब विद्युत् द्वारा आविष्ट होते हैं, तब उन कणों पर वाष्पीभूत अन्तरिक्षस्थ जल-कण घनीभूत हो जाते हैं, तब भारी हो जाने के कारण वर्षारूप में पृथिवी पर गिरते है। सूर्य की गर्मी द्वारा तो पृथिवीस्थ जल वाष्पीभूत होकर अन्तरिक्ष में एकत्रित होता रहता है, तत्पश्चात मृदादि कणों में आविष्ट विद्युत् के कारण उन पर वाष्पीय जलकण घनीभूत होकर बरसते हैं। इसलिए उपर्युक्त दो मन्त्रों द्वारा यह निश्चित किया है कि वर्षा में इन्द्र और वृषाकपि दोनों कारण हैं।

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    (सः) वह (नं ईशे) सवका स्वामी नहीं बन सकता (यस्य) जिसका (निषेदुषः) बैठे बैठे (रोमशं विजृम्भते) लोमयुक्त मुख केवल जंभाई लेता है। बल्कि (सः इत् ईशे) वह ही पुरुष सामर्थ्यवान् ऐश्वर्य का स्वामी बनता है (यस्य) जिसका (कपृद्) सुख और आनन्द से पूर्ण करने वाला स्वरूप, तेज या सामर्थ्य (सक्थ्या अन्तरा) परस्पर मिले हुए आकाश और पृथिवी के बीच में (रम्बते) मध्याह्न के सूर्य के समान विद्यमान रहता है। इसी कारण (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर सबसे अधिक ऊंचा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    That person whose radiant mind in a state of peace and freedom blossoms and expands in spiritual wakefulness does not rule the world of Prakrti. The master that rules the world of Prakrti is the power whose ecstatic presence in peace and sovereignty pervades in and over space and time. Indra is supreme over all.

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    Translation

    He whose organ even in dream and even before co-habition discharges genitive fluid may not be capable of having progeny. He whose long-shaped organ enters deep in the womb straight may be capable of having progeny. Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    He whose organ even in dream and even before co-habition discharges genitive fluid may not be capable of having progeny. He whose long-shaped organ enters deep in the womb straight may be capable of having progeny. Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    Here am I, the God, Who go about supervising and distinguishing between the Arya (i.e., the good and noble person) and Dasa (i.e., the wicked and evil-natured). I accept and protect him, who cultivates self-knowledge and blissful state of mind by deep-meditation, see the intelligent person, engrossed in deep devotion and meditation and show his worth to the world. The same God is greater than the whole world.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(विजृम्भते) आलस्येन जृम्भां मुखविकाशं करोति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সঃ) সেই পুরুষ (ন ঈশে) ঐশ্বর্যবান হয় না, (যস্য নিষেদুষঃ) যে উপবিষ্ট [অলস]-এর (রোমশম্) রোমশ মস্তক (বিজৃম্ভতে) বিজৃম্ভণ করে, (সঃ ইৎ) সেই পুরুষ (ঈশে) ঐশ্বর্যবান হয়, (যস্য) যার (কপৃৎ) শির পালক কপাল (সক্থ্যা অন্তরা) দুই উরুর মাঝখানে [ধ্যানে] (রম্বতে) ঝুলন্ত থাকে, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (শ্বিস্মাৎ) সব [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) শ্রেষ্ঠ॥১৭॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য আলস্যে শির ঝুঁকিয়ে ঝিমুতে থাকে, সে বিদ্যা, সুবর্ণ এবং রাজ্য আদি ঐশ্বর্য প্রাপ্ত হয় না, ঐশ্বর্য সেই মনুষ্য প্রাপ্ত হয়, যে শির ঝুঁকিয়ে নিজের অস্তিত্ব বিচার করে ইন্দ্র হয় ॥১৭॥

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    भाषार्थ

    (সঃ) সেই বৃষাকপি (ন ঈশে) বর্ষার অধীশ্বর নয়, (নিষেদুষঃ যস্য) এক স্থানে স্থিত যে বৃষাকপির (রোমশম্) লোমসমূহ-সদৃশ রশ্মিসমূহ, (বিজৃম্ভতে) বিশেষরূপে সর্বত্র বিচরণ করে, অপিতু (সঃ) সেই ইন্দ্র অর্থাৎ বিদ্যুৎ (ইৎ)(ঈশে) বর্ষার অধীশ্বরী (যস্য) যার (কপৃৎ) জলের পূর্ণতাকারী মেঘ (সক্থ্যা) আকর্ষণ দ্বারা পরস্পর সংসক্ত দ্যুলোক এবং ভূলোকের (অন্তরা) মধ্যে/মাঝখানে অর্থাৎ অন্তরিক্ষে (রম্বতে) গর্জন করে।

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