अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 22
ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
44
यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन। क्व स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गं जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । उद॑ञ्च: । वृ॒षा॒क॒पे॒ । गृ॒हम् । इ॒न्द्र॒ । अज॑गन्तन ॥ क्व । स्य: । पु॒ल्व॒घ: । मृ॒ग: । कम् । अ॒ग॒न् । ऊ॒न॒ऽयोप॑न: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन। क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । उदञ्च: । वृषाकपे । गृहम् । इन्द्र । अजगन्तन ॥ क्व । स्य: । पुल्वघ: । मृग: । कम् । अगन् । ऊनऽयोपन: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(वृषाकपे) हे वृषाकपि ! [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] [और हे इन्द्राणी ! मनुष्य की विभूति] (यत्) जब (उदञ्चः) ऊँचे चढ़ते हुए तुम सब (गृहम्) घर (अजगन्तन) पहुँच गये, (स्यः) वह (पुल्वघः) महापापी, (जनयोपनः) मनुष्य को घबरा देनेवाला, (मृगः) पशु [पशु समान गिरा हुआ जीवात्मा] (क्व) कहाँ (कम्) किस मनुष्य को (अगन्) पहुँचा, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२२॥
भावार्थ
जब मनुष्य अपने आत्मा और बुद्धि आदि विभूति को ठिकाने ले आता है, वह कभी भी दुष्ट कर्म करके संकट में नहीं पड़ता है ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(यत्) यदा (उदञ्चः) उद्गामिनः सन्तः। (वृषाकपे) म० १। हे बलवन् चेष्टयितर्जीवात्मन् (गृहम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य ! हे इन्द्राणि च यूयं सर्वे (अजगन्तन) गमेर्लङि मध्यमबहुवचने छान्दसः। शपः श्लुः। तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४। तनबादेशः। यूयम् अगच्छत (क्व) कुत्र (स्यः) सः (पुल्वघः) पुरु+अघ पापकरणे-अच् रस्य लः। बहुपापः (मृगः) म० ३। पशुतुल्यो नीचगामी जीवात्मा (कम्) प्रश्ने। मनुष्यम् (अगन्) अगच्छत् (जनयोपनः) जनमोहनः। अन्यद् गतम् ॥
विषय
'उदक' नकि 'पुल्वघ-मृग-जनयोपन'
पदार्थ
१. हे (वृषाकपे) = वासनाओं को कम्पित करनेवाले शक्तिशाली जीव! (यत्) = जब (उत् अञ्च:) = लोग उत्कृष्ट मार्ग पर चलनेवाले होते हैं, तभी वे (गृहम्) = घर को (अजगन्तन) = प्राप्त होते हैं। ब्रह्मलोक ही वस्तुत: इस जीव का घर है। उत्कृष्ट मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति इस गृह को प्राप्त करते हैं। २. परन्तु हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (स्य:) = वह (पुल्वघः) = बहुत पापोंवाला (मृगः) = सदा विलास की वस्तुओं को व परछिद्रों को खोजनेवाला [मृग अन्वेषणे] व्यक्ति ब्रह्मलोकरूप गृह में (क्व) = कहाँ आ पाता है? (जनयोपन:) = लोगों को पीड़ित करनेवाला (कम् अगन्) = किसको प्रास करता है? यह हिंसक पुरुष ब्रह्मलोक को क्या प्राप्त करेगा? उन्नति-पथ पर चलनेवाला पुरुष ही जान पाता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तर:) = सबसे उत्कृष्ट हैं।
भावार्थ
हम 'उद' बनें। 'पुल्वघ, मृग व जनयोपन' न बनें।
भाषार्थ
(वृषाकपे) हे वृषाकपि जीवात्मन्! (इन्द्र) और हे परमेश्वर! (यद्) जब तुम दोनों, (उदञ्चः) ऊपर के (गृहम्) घर में (आजगन्तन) आजाओगे, एकत्रित हो जाओगे, तब अधूरा-उपासक, जो पहिले (पुल्वघः) महापापी तथा (जनयोपनः) प्रजाजन-पीड़क (मृगः) पशु बना हुआ था, (स्यः) वह अब (क्व) कहाँ रहा, (कम्) कहाँ (अगन्) चला गया? [अर्थात् वह परमेश्वर में लीन हो गया,] जो (विश्वस्मात् इन्द्र उत्तरः) परमेश्वर कि सर्वोत्कृष्ट है।
टिप्पणी
[उदञ्चः=अर्थात् हृदयचक्र, आज्ञाचक्र तथा सहस्रारचक्र—ये ऊपर के चक्र हैं। इन्हें ऊपर के घर कहा गया है।]
विषय
जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ
हे (वृषाकप) बलवान् आनन्दरस पान करनेहारे ! हे (इन्द्र) आत्मज्ञान के साक्षात् करने हारे मुमुक्षो ! (यत्) जब (उद् अञ्चः) उदय को प्राप्त होने वाले, ऊपर उठने वाले, पुरुष (गृहम्) गृह के समान शरण, सबको अपने भीतर, शरण में ले लेने वाले परमेश्वर को प्राप्त होजाते हैं तब बतला कि (पुल्वघः) अति पापभोगी (स्यः मृगः) वह विषयों को खोजने वाला (जनयोपनः मृगः इव) मनुष्यों के विध्वंस करने वाले भूखे सिंह के समान लोलुप जीव (क्क अगन् कम्) भला कहां चला जाता है ? अर्थात् मृग, सिंह जिस प्रकार (पुलु-ऊधः-पुरु-अधः) बहुतों को मारता है और (जनयोपनः) बहुत से जन्तुओं का नाश करता है। वह जिस प्रकार पुरुष को गृह में आजाने फिर दिखाई नहीं देता, वह वन में ही रह जाता है इसी प्रकार जब मुमुक्षु ईश्वर को प्राप्त होजाता है तब (पुल्वधः) पुरु अर्थात् इन्दियों द्वारा नाना पाप भोग करने हारा (मृगः) विषय को खोजने वाला, (जनयोपनः) जन्म का नाश करनेहारा जीव फिर (क्व स्यः) वह कहां रहता है वह तो (कम्) सुखस्वरूप उस आनन्दमय को प्राप्त होजाता है जो (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) परमेश्वर सबसे ऊंचा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O Vrshakapi, O Indra, when the higher souls come rising to the state of peace in the divine home, then where does the sinner, the vexatious and the seeker roaming around go, to what state of life? Great is Indra, supreme over all the world.
Translation
O Almighty God, you are the pourer of happiness. When the men rising to excellent state attain the stage of blessedness where their souls remain in bliss, (they freely remain every where). The Almighty God is rarest of all and supreme over all.
Translation
O Almighty God, you are the pourer of happiness. When the men rising to excellent state attain the stage of blessedness where their souls remain in bliss, (they freely remain everywhere). The Almighty God is rarest of all and supreme over all.
Translation
Persons, listen attentively. The qualities of the leader of the people is being described here. O king or commander, reveling on the earth, or in the war, we appoint 6090 warriors in the enemy-destroying battalions of the army.
Footnote
6090 is probably the strength of a battalion inclusive of officers and servants.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(यत्) यदा (उदञ्चः) उद्गामिनः सन्तः। (वृषाकपे) म० १। हे बलवन् चेष्टयितर्जीवात्मन् (गृहम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य ! हे इन्द्राणि च यूयं सर्वे (अजगन्तन) गमेर्लङि मध्यमबहुवचने छान्दसः। शपः श्लुः। तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४। तनबादेशः। यूयम् अगच्छत (क्व) कुत्र (स्यः) सः (पुल्वघः) पुरु+अघ पापकरणे-अच् रस्य लः। बहुपापः (मृगः) म० ३। पशुतुल्यो नीचगामी जीवात्मा (कम्) प्रश्ने। मनुष्यम् (अगन्) अगच्छत् (जनयोपनः) जनमोहनः। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বৃষাকপে) হে বৃষাকপি! [দৃঢ় প্রচেষ্টাকারী জীবাত্মা] (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] [এবং হে ইন্দ্রাণী! মনুষ্যের বিভূতি] (যৎ) যখন (উদঞ্চঃ) উচ্চারোহণকারী তোমরা সবাই (গৃহম্) গৃহে (অজগন্তন) পৌঁছেছো, (স্যঃ) সেই (পুল্বঘঃ) মহাপাপী, (জনয়োপনঃ) মনুষ্যকে ভীতসন্ত্রস্তকারী, (মৃগঃ) পশু [পশুর মতো পতিত জীবাত্মা] (ক্ব) কোথায় (কম্) কোন মনুষ্যের কাছে (অগন্) পৌঁছেছে, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সব [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥২২॥
भावार्थ
মানুষ যখন আত্মা ও বুদ্ধি প্রভৃতি বিভূতিকে সঠিক স্থানে নিয়ে আসে, তখন খারাপ কাজ/দুষ্কর্ম করে সে কখনো কষ্ট পায় না/সংকটে পড়ে না।॥২২॥
भाषार्थ
(বৃষাকপে) হে বৃষাকপি জীবাত্মন্! (ইন্দ্র) এবং হে পরমেশ্বর! (যদ্) যখন তোমরা, (উদঞ্চঃ) উপরের (গৃহম্) গৃহে/ঘরে (আজগন্তন) আগমন করবে, একত্রিত হবে , তখন অপূর্ণ-উপাসক, যে পূর্বে (পুল্বঘঃ) মহাপাপী তথা (জনয়োপনঃ) প্রজাজন-পীড়ক (মৃগঃ) পশু ছিল, (স্যঃ) সে এখন (ক্ব) কোথায় আছে, (কম্) কোথায় (অগন্) চলে গেছে? [অর্থাৎ সে পরমেশ্বরের মধ্যে লীন হয়ে গেছে,] যে (বিশ্বস্মাৎ ইন্দ্র উত্তরঃ) পরমেশ্বর সর্বোৎকৃষ্ট।
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