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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    56

    उ॒वे अ॑म्ब सुलाभिके॒ यथे॑वा॒ङ्ग भ॑वि॒ष्यति॑। भ॒सन्मे॑ अम्ब॒ सक्थि॑ मे॒ शिरो॑ मे॒ वीव हृष्यति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒वे । अ॒म्ब॒ । सु॒ला॒भि॒के॒ । यथा॑ऽइव । अ॒ङ्ग । भ॒वि॒ष्यति॑ ॥ भ॒सत् । मे॒ । अ॒म्ब॒ । सक्थि॑ । मे॒ । शिर॑: । मे॒ । विऽइ॑व । हृ॒ष्य॒ति॒ । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति। भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उवे । अम्ब । सुलाभिके । यथाऽइव । अङ्ग । भविष्यति ॥ भसत् । मे । अम्ब । सक्थि । मे । शिर: । मे । विऽइव । हृष्यति । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (उवे) हे (अम्ब) अम्मा ! (अङ्ग) हे (सुलाभिके) सुन्दर लाभ करानेवाली ! (यथा इव) जैसा कुछ (भविष्यति) आगे होगा [वैसा किया जावे], (अम्ब) हे अम्मा ! (मे) मेरा (भसत्) चमकता हुआ कर्म, (मे) मेरी (सक्थि) जङ्घा, (मे) मेरा (शिरः) शिर (वि) विविध प्रकार से (इव) ही (हृष्यति) आनन्द देवे, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥७॥

    भावार्थ

    सब लड़के-लड़कियाँ गुणवती माता से, शरीर के अङ्गों से सुन्दर चेष्टा करके बलवान् और गुणवान् होना सीखें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(उवे) संबोधने निपातः। हे (अम्ब) मातः (सुलाभिके) शोभनलाभे (यथा इव) येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव (अङ्ग) हे (भविष्यति) भवतु (भसत्) म० ६। दीप्यमानं कर्म (मे) मम (अम्ब) (सक्थि) म० ६। जङ्घा (मे) (शिरः) (मे) (वि) विविधम् (इव) अवधारणे (हृष्यति) हर्षयतु। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    माता, नकि स्त्री

    पदार्थ

    १. वृषाकपि उत्तर देता हुआ कहता है कि (उवे अम्ब) = हे मात: ! हे (सुलाभिके) = सब उत्तम लाभों को प्राप्त करानेवाली! (अङ्ग) = प्रिय मात: ! (यथा इव भविष्यति) = जैसा आप कहती हो वैसा ही होगा। आप 'सुभतरा, सुयाशुतरा, प्रतिच्यवीसी व सक्थ्युद्यमीयसी' ही हैं। आपके पुत्र के नाते (मे) = मेरी (भसत्) = दीप्ति, (मे सक्थि) = माता-पिता के प्रति मेरा प्रेम अथवा सब भाइयों के प्रति स्नेह तथा (मे शिर:) = मेरा उन्नति के शिखर पर पहुँचना (वि हृष्यति इव) = विशिष्ट प्रसन्नतावाला सा होता है। २. यह तो आप ठीक ही कहती हो कि (इन्द्रः) = वे प्रभु (विश्वस्मात्) = सबसे (उत्तर:) = अधिक उत्कृष्ट हैं। मुझे भी उस प्रभु को पाने के लिए सब-कुछ छोड़ना स्वीकार है। ३. यहाँ वृषाकपि प्रकृति को 'अम्ब' इस रूप में सम्बोधन करता हुआ यही संकेत करता है कि प्रकृति मेरी स्त्री नहीं, अपितु माता है। यह प्रकृति मेरे लिए उपभोग्य न होकर आदरणीय है। इस प्रकृतिमाता से मैंने आवश्यक सहायता प्राप्त करनी है। इस भावना के होने पर ही प्रकृति 'सुलाभिका' होती है। प्रकृति को इस रूप में देखनेवाला ही दीप्ति व प्रेम प्राप्त करके उन्नति के शिखर पर पहुँचता है।

    भावार्थ

    प्रकृति को हम माता समझकर चलेंगे तो उसके प्रति आसक्त न होकर, दीस प्रेमयुक्त जीवनवाले बनकर उन्नत होंगे।

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    भाषार्थ

    (उवे अम्ब) हे माता! (सुलाभिके) हे सुगमता से लाभ पहुँचानेवाली माता! (अङ्ग) हे प्यारी माता! (यथा इव) जैसा आप चाहेंगी वैसा ही (भविष्यति) होगा, अर्थात् वैसा ही मैं करूँगी। हे माता! आपकी आज्ञा के पालन में (मे) मेरी (भसत्, सक्थि शिरः) अङ्ग-प्रत्यङ्ग (वि) विशेषरूप में (इव) मानो (हृष्यति) प्रसन्न हो जाते हैं, हर्ष प्राप्त करते हैं। (विश्वस्मात০) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [कन्या का माता के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए—इसका उत्तम वर्णन मन्त्र में है।]

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    (उवे) हे (अम्ब) व्यापक शक्तिमति ! हे (सुलाभिके) सुख का लाभ कराने हारी (अंग) अंग, हे व्यक्तरूप प्रकृते ! (भसत्) देदीप्यमान तेज (मे) मेरे हों। (सक्थि मे) यह तेरी समवाय शक्ति (मे) मेरे उपयोग में आवे। (मे शिरः) मेरा शिर, मुख्य चित्त (विहृष्यति इव) विविध रूपों से हर्ष को प्राप्त होता है। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) इन्द, ऐश्वर्यवान् परमात्मा तो सबसे ऊंचा है। जीव कहता है कि ईश्वर विश्व से ऊंचा है। प्रकृति का यह सब सौभाग्य और सक्थि अर्थात् आसक्ति अर्थात् भोग्य शक्ति या जीवों को बांधने वाली शक्ति जीवके उपयोग में ही आती है। मैं जीव ही उससे प्रसन्न होता हूं, ईश्वर भोग बन्धनों में नहीं पड़ता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Mother Nature, Prakrti, blessed and blissful fertility and giver of virility, whatever is to be shall be. My breast, my loins, my head all vibrate with energy, your gift. Indra is supreme over all.

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    Translation

    This matter is the mother of mine, the soul as it is closely connected with Almighty God. My productive organ, my head like a birds grow in strength from it. The Almighty God is rerest of all and supreme over all.

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    Translation

    This matter is the mother of mine, the soul as it is closely connected with Almighty God. My productive organ, my head like a birds grow in strength from it. The Almighty God is rerest of all and supreme over all.

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    Translation

    This violently malignant one, (i.e.,) soul completely considers me bereftof a heroic supporter or helper. I (i.e., the mother) am, on the other hand, the mother of the brave offspring in the form, of Vital breaths and a thing well-protected by the Almighty God, the friend of Marutas, the noble gases in the atmosphere. The Almighty God is Supreme over all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(उवे) संबोधने निपातः। हे (अम्ब) मातः (सुलाभिके) शोभनलाभे (यथा इव) येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव (अङ्ग) हे (भविष्यति) भवतु (भसत्) म० ६। दीप्यमानं कर्म (मे) मम (अम्ब) (सक्थि) म० ६। जङ्घा (मे) (शिरः) (मे) (वि) विविधम् (इव) अवधारणे (हृष्यति) हर्षयतु। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (উবে) হে (অম্ব) মাতা! (অঙ্গ) হে (সুলাভিকে) উত্তমরূপে লাভ প্রদানকারী! (যথা ইব) যেমন কিছু (ভবিষ্যতি) ভবিতব্য/ভবিষ্যতে ঘটবে [তেমনই করা হবে], (অম্ব) হে মাতা! (মে) আমার (ভসৎ) দীপ্যমান কর্ম, (মে) আমার (সক্থি) জঙ্ঘা, (মে) আমার (শিরঃ) শির/মস্তক (বি) বিবিধ প্রকারে (ইব)(হৃষ্যতি) আনন্দ প্রদান করুক, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সকল [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥৭॥

    भावार्थ

    সকল বালক-বালিকা সদাচারী/গুণবতী মায়ের কাছ থেকে, শরীরের অঙ্গ দ্বারা সুন্দর প্রচেষ্টা করে বলবান ও গুণী হতে শিখুক ॥৭॥

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    भाषार्थ

    (উবে অম্ব) হে মাতা! (সুলাভিকে) হে সুগমতাপূর্বক লাভ প্রদানকারী মাতা! (অঙ্গ) হে প্রিয় মাতা! (যথা ইব) যেমন আপনি কামনা করবেন তেমনই (ভবিষ্যতি) হবে, অর্থাৎ তেমনই আমি করবো। হে মাতা! আপনার আজ্ঞা পালনে (মে) আমার (ভসৎ, সক্থি শিরঃ) অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ (বি) বিশেষরূপে (ইব) মানো (হৃষ্যতি) প্রসন্ন হয়, হর্ষ প্রাপ্ত করে। (বিশ্বস্মাত০) পূর্ববৎ।

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