अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 19
ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
46
अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद्विचि॒न्वन्दास॒मार्य॑म्। पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ए॒मि॒ । वि॒ऽचाक॑शत् । वि॒ऽचि॒न्वन् । दास॑म् । आर्य॑म् ॥ पिबा॑मि । पा॒क॒सुत्व॑न: । अ॒भि । धीर॑म् । अ॒चा॒क॒श॒म् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम्। पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । एमि । विऽचाकशत् । विऽचिन्वन् । दासम् । आर्यम् ॥ पिबामि । पाकसुत्वन: । अभि । धीरम् । अचाकशम् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(विचाकशत्) विविध प्रकार सुशोभित हुआ, और (दासम्) डाकू और (आर्यम्) आर्य [श्रेष्ठ पुरुष] को (विचिन्वन्) पहिचानता हुआ (अयम्) यह मैं [इन्द्र] (एमि) चलता हूँ, (पाकसुत्वनः) पक्के विद्वान् के तत्त्व रस का (पिबामि) पान करता हूँ और (धीरम्) धीर [बुद्धिमान्] को (अभि) सब प्रकार (अचाकशम्) सुशोभित करता हूँ, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१९॥
भावार्थ
मनुष्य विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित होकर, दुष्टों और शिष्टों की विवेचना करके शिष्टों का मान और दुष्टों का अपमान करता हुआ इन्द्रत्व दिखावे ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(अयम्) इन्द्रः (एमि) गच्छामि (विचाकशत्) अ० १३।३।१। काशृ दीप्तौ चङ्लुकि शतृ। विविधं भृशं शोभमानः (विचिन्वन्) चिञ् चयने-शतृ। परिचिन्वन्। विशेषेण जानन् (दासम्) उपक्षेपयितारम्। दस्युम् (आर्यम्) श्रेष्ठं पुरुषम् (पिबामि) पानं करोमि (पाकसुत्वनः) षुञ् अभिषवे-क्वनिप्। पाकः पक्तव्यो भवति विपक्वप्रज्ञ आत्मा-निरु० ३।१२। विपक्वप्रज्ञस्य तत्त्वरसस्य (अभि) सर्वतः (धीरम्) बुद्धिमन्तम् (अचाकशम्) काशृ दीप्तौ यङ्लुकि लङ्। शोभयामि। अन्यद् गतम् ॥
विषय
'दास व आर्य' का विवेक
पदार्थ
१. वृषाकपि कहता है कि (अयम्) = यह मैं (विचाकशत्) = [कश् to sound]-प्रभु के नामों का उच्चारण करता हुआ (एमि) = गतिशील होता हूँ-अपने कार्यों में प्रवृत्त होता हूँ। मैं अपने जीवन में (दासम्) = [दस उपक्षये] नाशक वृत्ति को तथा (आर्यम्) = श्रेष्ठ वृत्ति को (विचिन्वन्) = विविक्त करता हुआ गति करता हूँ। दास वृत्तियों को छोड़ता हुआ आर्य वृत्तियों को अपनाता हूँ। २. (पाकसुत्वन:) = जीवन के परिपाक के लिए उत्पन्न किये गये सोम का (पिबामि) = मैं पान करता हूँ। इस सोम को शरीर में ही व्याप्त करने से नवशक्तियों का सुन्दर परिपाक होता है। इस परिपाक से मैं (धीरम्) = उस ज्ञान देनेवाले प्रभु को (अभि अचाकशम्) = प्रात:-सायं स्तुत करता हूँ कि -(इन्द्रः) = वे परमेश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सारे संसार से अधिक उत्कृष्ट है।
भावार्थ
सोम का शरीर में व्यापन होने पर जीवन की शक्तियों का उत्तम परिपाक होता है। यह व्यक्ति ही प्रभु का स्तवन व दर्शन कर पाता है।
भाषार्थ
इन्द्र अर्थात् परमेश्वर कहता हे कि (अयम्) यह मैं (विचाकशत्) विवेकपूर्वक निरीक्षण करता हुआ (दासम् आर्यम्) दास और आर्य का (विचिन्वन्) विवेकपूर्वक भेद करता हुआ, (एमि) इस जगत् में आता हूँ। मैं (पाकसुत्वनः) परिपक्व-भक्तिरसवाले उपासक के परिपक्व भक्तिरस का (पिबामि) पान करता हूँ, उसे स्वीकार करता हूँ, उसे मानो तृषित हुआ ग्रहण करता हूँ। और (धीरम्) मेधावी उपासक को (अचाकशम्) पहिचानता हूँ। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।
टिप्पणी
[दासम् अर्थात्=वेदों में इन दो शब्दों का प्रयोग मनुष्यों की भिन्न-भिन्न दो जातियों के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ, अपितु ये शब्द विचारों और कर्मों के भेद को ही सूचित करते हैं। यदि यह भेद जातिपरक हो तो “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” (ऋ০ ९.६३.५) यह वैदिक आदेश व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि एक जाति को दूसरी जाति में बदला नहीं जा सकता। गौ भैंस नहीं बन सकती, और न भैंस बन सकती है। समग्र मनुष्य एक ही मनुष्य जाति के हैं। विचारों और कर्मों की दृष्टि से राक्षस, असुर, देव और मनुष्य कहलाते हैं। दास हैं वे जोकि उपक्षयकारी हैं, समाज को हानि पहुँचाते हैं। और आर्य हैं वे जोकि समाज का कल्याण करते, और अपने आपको ईश्वर का पुत्र मानकर ईश्वरसदृश सर्वोपकार करते हैं। आर्यः=ईश्वरपुत्रः (निरु০ ६.५.२६)। दासः=दस्यतेरुप दासयति कर्माणि (निरु০ २.५.१७)। अतः दास और आर्य का भेद जन्ममूलक नहीं, अपितु गुणकर्ममूलक है।]
विषय
जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ
(अयम्) यह मैं साक्षात् (विचाकशत्) विवेक पूर्वक देखता हुआ और (दासम् आर्यम्) दास, आर्य, नाशक और पालक स्वामी दोनों का (विचिन्वन्) विवेक करता हुआ (एमि) परिणाम पर आता हूं। (पाकसुत्वनः) जो पुरुष अपने आत्मज्ञान का परिपाक करता है और जो नित्य आत्मज्ञान रूप रस को योग समाधि द्वारा सवन करता है, उसको (पिबामि) मैं उसी का साक्षात् कर स्वीकार करूं और (धीरम्) मैं धीर, धीमान् उसी पुरुष को (अभि चाकशम्) साक्षात् स्वयं देखता हूं और दूसरों दर्शाता हूं कि (विश्वस्मात् इन्द्र उत्तरः) वह ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ही सबसे उत्कृष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Perceiving the light of knowledge, building up my score of yajnic action, I come to the omnificent vibrant presence of divinity, and I drink of the nectar of the light and life of purity, eternity and direct realisation of divine communion. Indra is greater than the world of existence.
Translation
May I, the soul gaining knowledge and performing righteous deed attain per-eminent God who is giver of happiness and drinks the knowledge dawned. I also realise that Divinity who is firm. The Almighty God is rarest and supreme over all.
Translation
May I, the soul gaining knowledge and performing righteous deed attain per-eminent God who is giver of happiness and drinks the knowledge dawned. I also realize that Divinity who is firm. The Almighty God is rarest and supreme over all.
Translation
O bliss-creating and ignorance-dispelling soul, (i.e., Vimukta Atman) come again into the world, we both (i.e. Primeval Matter and God) shall generate happiness and all means of well-being for thee, who, again destroying or shaking off death by the same path as before, goest to his own shelter (i.e., the God) in the state of salvation. Great God is the Supremest of all.
Footnote
The cycle of going into the state of salvation and returning to life and death on the earth, goes on turn by turn.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(अयम्) इन्द्रः (एमि) गच्छामि (विचाकशत्) अ० १३।३।१। काशृ दीप्तौ चङ्लुकि शतृ। विविधं भृशं शोभमानः (विचिन्वन्) चिञ् चयने-शतृ। परिचिन्वन्। विशेषेण जानन् (दासम्) उपक्षेपयितारम्। दस्युम् (आर्यम्) श्रेष्ठं पुरुषम् (पिबामि) पानं करोमि (पाकसुत्वनः) षुञ् अभिषवे-क्वनिप्। पाकः पक्तव्यो भवति विपक्वप्रज्ञ आत्मा-निरु० ३।१२। विपक्वप्रज्ञस्य तत्त्वरसस्य (अभि) सर्वतः (धीरम्) बुद्धिमन्तम् (अचाकशम्) काशृ दीप्तौ यङ्लुकि लङ्। शोभयामि। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বিচাকশৎ) বিবিধ প্রকার সুশোভিত, এবং (দাসম্) দস্যু এবং (আর্যম্) আর্যকে [শ্রেষ্ঠ পুরুষকে] (বিচিন্বন্) বিশেষ ভাবে জ্ঞাত/পরিচিত হয়ে (অয়ম্) এই আমি [ইন্দ্র] (এমি) চলি/গমন করি, (পাকসুত্বনঃ) পরিপক্ক বিদ্বানের তত্ত্ব রস (পিবামি) পান করি এবং (ধীরম্) ধীরকে [বুদ্ধিমানকে] (অভি) সর্বতোভাবে (অচাকশম্) সুশোভিত করি, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সব [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥১৯॥
भावार्थ
মনুষ্য বিদ্যা আদি শ্রেষ্ঠ গুণসমূহ দ্বারা সুশোভিত হয়ে, দুষ্টদের এবং শিষ্টদের বিবেচনা করে শিষ্টদের সম্মান এবং দুষ্টদের অপমান করে করে ইন্দ্রত্ব প্রদর্শিত করুক॥১৯॥
भाषार्थ
ইন্দ্র অর্থাৎ পরমেশ্বর বলেন, (অয়ম্) এই আমি (বিচাকশৎ) বিবেকপূর্বক নিরীক্ষণ করে (দাসম্ আর্যম্) দাস এবং আর্যের (বিচিন্বন্) বিবেকপূর্বক ভেদ করে, (এমি) এই জগতে আগমন করি। আমি (পাকসুত্বনঃ) পরিপক্ব-ভক্তিরসসম্পন্ন উপাসকের পরিপক্ব ভক্তিরস (পিবামি) পান করি, তা স্বীকার করি, তা মানো তৃষ্ণার্ত হয়ে গ্রহণ করি। এবং (ধীরম্) মেধাবী উপাসককে (অচাকশম্) জানি। (বিশ্বস্মাৎ০) পূর্ববৎ।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal