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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
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    किं सु॑बाहो स्वङ्गुरे॒ पृथु॑ष्टो॒ पृथु॑जाघने। किं शू॑रपत्नि न॒स्त्वम॒भ्यमीषि वृ॒षाक॑पिं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । सु॒बा॒हो॒ इति॑ सु बाहो । सु॒ऽअ॒ङ्गु॒रे॒ । पृथु॑स्तो॒ इति॒ । पृथु॑ऽस्तो । पृथु॑ऽजघने ॥ किम् । शू॒र॒ऽप॒त्नि॒ । न॒: । त्वम् । अ॒भि । अ॒मी॒षि॒ । वृ॒षाक॑पिम् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने। किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । सुबाहो इति सु बाहो । सुऽअङ्गुरे । पृथुस्तो इति । पृथुऽस्तो । पृथुऽजघने ॥ किम् । शूरऽपत्नि । न: । त्वम् । अभि । अमीषि । वृषाकपिम् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुबाहो) हे बलवान् भुजाओंवाली ! (स्वाङ्गुरे) हे दृढ़ अंगुलियोंवाली ! (पृथुजघने) हे मोटी जङ्घाओंवाली ! (पृथुष्टो) हे बड़ी स्तुतिवाली ! [कुलवधू] (किम्) क्यों, (शूरपत्नि) हे शूर की पत्नी ! (किम्) क्यों, (त्वम्) तू (नः) हमारे (वृषाकपिम्) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] को (अभि) सर्वथा (अमीषि) पीड़ा देगी, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥८॥

    भावार्थ

    रूपवती, बलवती, गुणवती स्त्री पुत्र-पुत्रियों को रूपवान्, बलवान् और गुणवान् बनाकर पति आदि को सदा प्रसन्न करे ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(किम्) आक्षेपे। किमर्थम् (सुबाहो) बलयुक्तभुजोपेते (स्वाङ्गुरे) दृढाङ्गुलिके (पृथुष्टो) अथ० ७।४६।१। ष्टुञ् स्तुतौ-डु। बहुस्तुतियुक्ते (पृथुजघने) स्थूलजङ्घे (किम्) (शूरपत्नि) हे वीरस्य भार्ये (नः) अस्माकम् (त्वम्) (अभि) सर्वतः (अमीषि) अम पीडने। आमयसि। पीडयिष्यसि (वृषाकपिम्) म० १। बलवन्तं चेष्टयितारं जीवात्मानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    वृषाकपि की प्रशस्त भावना

    पदार्थ

    १. इन्द्र इन्द्राणी से कहता है कि हे (सुबाहो) = उत्तम बाहुओंवाली (स्वंगुरे:) = उत्तम अंगुलियोंवाली, (पृथुष्टो) = विशाल केशसमूहवाली (पृथुजाधने) = विशाल जघनोंवाली तुम (किम्) = वृषाकपि के प्रति क्यों रुष्ट होती हो। (मा) = मुझ (शूरपनि) = शुर की पत्नी होती हुई (त्वम्) = तू (किम्) = क्यों (वृषाकपिम्) = वृषाकपि के प्रति (अभि अमीषि) = क्रोध करती है? २. तु सुन्दर है, आकर्षक है, तेरा अंग-प्रत्यंग मनोहर है। ऐसा होने पर भी तेरा पुत्र वृषाकपि तेरे प्रति मातृभावना रखता हुआ तेरा समुचित आदर करता है। इससे बढ़कर क्या बात हो सकती है कि हमारा पुत्र वृषाकपि इतनी उत्कृष्ट वृत्तिवाला है। ३. इतना तो तूने भी कहा है कि मेरा पति (इन्द्रः) = इन्द्र (विश्वस्मात् उत्तर:) = सबसे उत्कृष्ट है। तुझे इसी बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारा लड़का सचमुच वृषाकपि है-वासनाओं को कम्पित करके शक्तिशाली बना है।

    भावार्थ

    प्रकृतिरूप स्त्री अत्यन्त आकर्षक है। वह प्रभु की पत्नी है। जीव की तो वह माता ही है, पत्नी नहीं।

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    भाषार्थ

    (सुबाहो) हे सुन्दर बाहुओंवाली! (स्वङ्गुरे) हे उत्तम अङ्गुलियोंवाली! (पृथुष्टो) हे महाकीर्त्तिवाली! (पृथुजाघने) हे बड़ी कटिवाली! (शूरपत्नि) हे शूरवीर की पत्नी! या स्वयं शूरवीरे! (त्वम् किम्) तू क्यों (नः) हमारे (वृषाकपिम्) भक्तिरसवाले, और पापों को कम्पा देनेवाले सच्चरित्र पुत्र को (अभ्यमीषि) बदनाम करती है? (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्। [किसी स्त्री को नहीं चाहिए कि वह किसी के सच्चरित्र पुत्र पर झूठा दोषारोपण करे।]

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    सुन्दर स्त्री जिस प्रकार उत्तम बाहु वाली, (सु अङ्गरिः) उत्तम अंगुलियों या अंगों वाली, (पृथुष्टुः) विशाल केश पाशवाली और (पृथु जाघना) विशाल नितम्ब वाली होकर (शूर पत्नी) शूरवीर पति की स्त्री होती है। इसी प्रकार हे प्रकृति ! तू भी हे (सुबाहो) उत्तम रीति से जीवों को बांधने या संसार के जन्म मरण में पीड़ा देने वाली (स्वङ्गुरि) हे सोभन, प्रत्येक अवयव अवयव मे दीप्ति वाली ! हे (पृथुजाघने) विस्तृत व्यापक शक्तिवाली ! हे (शूरपत्नि) सबके प्रेरणा करने वाले, जगत् के सञ्चालक परमेश्वर को अपना पति, मानने वाली उसी की आज्ञा पालन करने हारी ! तू (किं २) क्यों, किस निमित्त (नः) हमारे (वृषाकपिम्) जीव आत्मा को (अभि अमीषि) लक्ष्य कर उसपर क्रोध करती है। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) ऐश्वर्यवान् मैं परमेश्वर ही सबसे उत्कृष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    O lady of lovely arms and nimble fingers, wavy hair and ample zone, divine consort of omnipotence, why do you arraign Vrshakapi, why blame jivatma? Indra is supreme over all.

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    Translation

    Why this dame (the matter) having lovely hands and arms with broad hair-plats and ample hips and being the wife of heros pains this soul because this soul is closely attached with her. The Almighty God is rarest of all and is supreme over all.

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    Translation

    Why this dame (the matter) having lovely hands and arms with broad hair-plats and ample hips and being the wife of heros pains this soul because this soul is closely attached with her. The Almighty God is rarest of all and is supreme over all.

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    Translation

    Just as a female goes to a sacrifice or war and is respected as the ordainer of the true knowledge, mother of brave sons and wife of a powerful and fortunate husband, similarly in the very beginning of the creation, the primeval matter, the constant companion of the Leader of all, assumes the collective sustaining power in greatest sacrifice of the creation of the universe and gets extolled as the sustainer of the laws of nature, the source of all powers and energies and well-protected and nourished by the Mighty Lord. The Mighty Lord is the greatest of all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(किम्) आक्षेपे। किमर्थम् (सुबाहो) बलयुक्तभुजोपेते (स्वाङ्गुरे) दृढाङ्गुलिके (पृथुष्टो) अथ० ७।४६।१। ष्टुञ् स्तुतौ-डु। बहुस्तुतियुक्ते (पृथुजघने) स्थूलजङ्घे (किम्) (शूरपत्नि) हे वीरस्य भार्ये (नः) अस्माकम् (त्वम्) (अभि) सर्वतः (अमीषि) अम पीडने। आमयसि। पीडयिष्यसि (वृषाकपिम्) म० १। बलवन्तं चेष्टयितारं जीवात्मानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সুবাহো) হে শক্তিশালী বাহুর অধিকারিণী! (স্বাঙ্গুরে) হে দৃঢ় আঙ্গুলের অধিকারিণী! (পৃথুজঘনে) হে স্থূল উরুযুক্ত! (পৃথুষ্টো) হে মহান স্তুতিযুক্ত! [কুলবধূ] (কিম্) কেন, (শূরপত্নি) হে বীরের পত্নী! (কিম্) কেন, (ত্বম্) তুমি (নঃ) আমাদের (বৃষাকপিম্) বৃষাকপিকে [দৃঢ় প্রচেষ্টাকারী জীবাত্মাকে] (অভি) সর্বদা (অমীষি) পীড়া/কষ্ট দেবে/পীড়িত করবে, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সব [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥৮॥

    भावार्थ

    রূপবতী, বলবতী, গুণবতী স্ত্রী/নারী পুত্র-কন্যাকে রূপবান, বলবান এবং গুণবান করে পতি আদিকে সর্বদা প্রসন্ন করুক ॥৮॥

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    भाषार्थ

    (সুবাহো) হে সুন্দর বাহুসম্পন্ন! (স্বঙ্গুরে) হে উত্তম অঙ্গুলিযুক্ত! (পৃথুষ্টো) হে মহাকীর্ত্তিসম্পন্ন! (পৃথুজাঘনে) হে বড়ো কটি/কোমরযুক্ত! (শূরপত্নি) হে বীরের পত্নী! বা স্বয়ং বীর! (ত্বম্ কিম্) তুমি কেন (নঃ) আমাদের (বৃষাকপিম্) ভক্তিরসযুক্ত, এবং পাপ-সমূহকে কম্পিতকারী সচ্চরিত্র পুত্রকে (অভ্যমীষি) বদনাম করো? (বিশ্বস্মাৎ০) পূর্ববৎ। [কারোর সচ্চরিত্র পুত্রের ওপর মিথ্যা দোষারোপ করা, কোনো স্ত্রী-এর উচিত নয়।]

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