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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    46

    किम॒यं त्वां॑ वृ॒षाक॑पिश्च॒कार॒ हरि॑तो मृ॒गः। यस्मा॑ इर॒स्यसीदु॒ न्वर्यो वा॑ पुष्टि॒मद्वसु॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । अ॒यम् । त्वाम् । वृ॒षाक॑पि: । च॒कार॑ । हरि॑त: । मृ॒ग: ॥ यस्मै॑ । इ॒र॒स्यसि॑ । इत् । ऊं॒ इति॒ । नु । अ॒र्य: । वा॒ । पु॒ष्टि॒मत् । वसु॑ । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । अयम् । त्वाम् । वृषाकपि: । चकार । हरित: । मृग: ॥ यस्मै । इरस्यसि । इत् । ऊं इति । नु । अर्य: । वा । पुष्टिमत् । वसु । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (किम्) कौनसा [अपकार] (अयम्) इस (हरितः) छीन लेनेवाले, (मृगः) घूमनेवाले मृग [जंगली पशु के समान] (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (त्वाम्) तुझको (चकार) किया है ? (यस्मै) जिस [जीवात्मा] के लिये (अर्यः) स्वामी होकर तू (पुष्टिमत्) पुष्टि रखनेवाले (वसु) धन का (इत्) भी (वा) अवश्य (उ) निश्चय करके (नु) अब (इरस्यसि) डाह करता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य को चाहिये कि पशु के समान आचरण अर्थात् पापबुद्धि और डाह छोड़कर पुरुषार्थ से वृद्धि करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(किम्) किमपकारम् (अयम्) विचार्यमाणः (त्वाम्) मनुष्यम् (वृषाकपिः) म० १। बलवच्चेष्टाकारको जीवात्मा (चकार) कृतवान् (हरितः) हरणशीलः (मृगः) मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः-निरु० १३।३। भ्रमणशीलो वनपशुर्यथा (यस्मै) वृषाकपये जीवात्मने (इरस्यसि) इरस ईष्यायां कण्ड्वादिः। ईर्ष्यसि (इत्) अपि (उ) एव (नु) इदानीम् (अर्यः) स्वामी (वा) अवधारणे (पुष्टिमत्) पोषयुक्तम् (वसु) धनम्। सिद्धमन्यत् ॥

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    विषय

    हरितो मृगः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (अयं वृषाकपि) = यह वृषाकपि (त्वाम्) = आपकी प्राप्ति का लक्ष्य करके (किं चकार) = क्या करता है ? यही तो करता है कि (हरितः) = यह इन्द्रियों का प्रत्याहार करनेवाला बनता है और (मृग:) = आत्मान्वेषण में प्रवृत्त होता है। २. यह आत्मनिरीक्षण करनेवाला और विषयों से इन्द्रियों को प्रत्याहत करनेवाला वृषाकपि वह है (यस्मा) = जिसके लिए आप (अर्यः) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामी होते हुए (वा उ) = निश्चय से (नु) = अब (पुष्टिमत्) = (वसु) = पुष्टिवाले धन को-पोषण के लिए पर्याप्त धन को (इरस्यसि इत्) = देते ही हैं। वे प्रभु (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं विश्वस्मात् उत्तर: सबसे उत्कृष्ट हैं।

    भावार्थ

    हम आत्मानिरीक्षण करें, इन्द्रियों को विषयों से प्रत्याहृत करें। प्रभु हमें पोषक धन प्राप्त कराएंगे।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (अयं वृषाकपिः) इस वृषाकपि ने (त्वाम्) आपके प्रति (किं चकार) क्या अपराध किया?, (किं हरितः मृगः) क्या यह विषयों से हरा हुआ जंगली पशु है? (यस्मै इत् उ) जिस वृषाकपि के लिए ही आप (इरस्यसि) मोक्षरूपी अन्न चाहते हैं, (वा पुष्टिमद् वसु) तथा परिपुष्ट-सम्पत्तियाँ चाहते हैं, वह तो (नु) निश्चय से (अर्यः) इन्द्रियों का विजेता स्वामी है। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [हरितः=हृतः। मृगः= An animal in general। इरस्यसि=इरा=अन्नम् (निघं০ २.७)+सुक्+ क्यच्+सि। “सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्यचि लालसायां सुगसुगौ” (अष्टा০ ७.१.५१ पर वार्तिक) द्वारा “सुक्”। यथा—दधिस्यति, मधुस्यति। अर्यः=स्वामी। अथवा हरितः=हरः हरणं विषयैः जातः यस्य=हर+इतच्।]

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (अयं) यह (वृषाकपिः) सूर्य के समान तेजस्वी, मेघ के समान अपनी आत्मभूमि में आनन्दरस का धर्ममेघ समाधि द्वारा वर्षण करनेहारा, कपि, सूर्य के समान अति तेजस्वी आत्मा (हरितः) आदित्य के समान तेजस्वी, तेरे द्वारा हरण किया गया, तुझ में आकृष्ट एवं (मृगः) अपने को शुद्ध करने और तुझ को नित्य खोजने में लगा हुया, (त्वा) तेरे प्रति (किम् चकार) क्या प्रिय कार्य या उपकार करता है कि (यस्मै) जिसको तू (नु) भला (अर्यः वा) स्वामी के समान (पुष्टिमत्) गवादि धन धान्य से युक्त समस्त (वसु) ऐश्वर्य, (इरस्यसि इत् उ) दिये ही चला जा रहा है ? ठीक है (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) वह तू ऐश्वर्यवान् परमेश्वर सबसे उत्कृष्ट, सबसे बढ़कर है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    What has this Vrshakapi done to you, this golden green natural, who needs initiation but who is the top master spirit of the created, toward whom you show so much resentment? Indra is supreme over the whole creation.

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    Translation

    O Almighty Lord, what means and efforts towards your attainment keeping you as aim or target adopts this soul attracted to you and in quest of you, that you like a master give it the riches of strength and nourishment. The Almighty God is rarest of all and superme over all.

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    Translation

    O Almighty Lord, what means and efforts towards your attainment keeping you as aim or target adopts this soul attracted to you and in quest of you, that you like a master give it the riches of strength and nourishment. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    The soul, agitated and fickle like a monkey, (under the spell of his passions) enjoys, in various ways, all the sweet-looking objects, clearly cut and created out of me, (the primeval matter). Surely I (i.e., the same matter) destroy his head (i.e., all the thinking faculties, so that he becomes, forgetful of his own real identity). I (the matter) don’t become a source of pleasure and happiness to the evil-doer. The Mighty Lord is far Glorious than all others.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(किम्) किमपकारम् (अयम्) विचार्यमाणः (त्वाम्) मनुष्यम् (वृषाकपिः) म० १। बलवच्चेष्टाकारको जीवात्मा (चकार) कृतवान् (हरितः) हरणशीलः (मृगः) मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः-निरु० १३।३। भ्रमणशीलो वनपशुर्यथा (यस्मै) वृषाकपये जीवात्मने (इरस्यसि) इरस ईष्यायां कण्ड्वादिः। ईर्ष्यसि (इत्) अपि (उ) एव (नु) इदानीम् (अर्यः) स्वामी (वा) अवधारणे (पुष्टिमत्) पोषयुक्तम् (वसु) धनम्। सिद्धमन्यत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে মনুষ্য!] (কিম্) কোন [অপকার] (অয়ম্) এই (হরিতঃ) হরণকারী, (মৃগঃ) বিচরণকারী মৃগ [বন্য পশুর মতো] (বৃষাকপিঃ) বৃষাকপি [জোর প্রচেষ্টাকারী জীবাত্মা] (ত্বাম্) তোমাকে (চকার) করেছে? (যস্মৈ) যার [জীবাত্মার] জন্যে (অর্যঃ) স্বামী হয়ে তুমি (পুষ্টিমৎ) পুষ্টিযুক্ত (বসু) ধন-সম্পদের (ইৎ)(বা) অবশ্যই (উ) নিশ্চিতরূপে (নু) এখন (ইরস্যসি) ঈর্ষা করো, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সকলের [প্রাণীমাত্র] থেকে (উত্তরঃ) শ্রেষ্ঠ ॥৩॥

    भावार्थ

    মনুষ্যের উচিৎ, পশুর মতো আচরণ অর্থাৎ পাপবুদ্ধি এবং ঈর্ষা/হিংসা ত্যাগ করে পুরুষার্থ দ্বারা প্রগতি করা ॥৩॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (অয়ং বৃষাকপিঃ) এই বৃষাকপি (ত্বাম্) আপনার প্রতি (কিং চকার) কী অপরাধ করেছে?, (কিং হরিতঃ মৃগঃ) এই জীবাত্মা কী বিষয় দ্বারা পরাজিত বণ্য পশু? (যস্মৈ ইৎ উ) যে বৃষাকপি-এর জন্যই আপনি (ইরস্যসি) মোক্ষরূপী অন্ন কামনা করেন, (বা পুষ্টিমদ্ বসু) তথা পরিপুষ্ট-সম্পত্তি কামনা করেন, সে তো (নু) নিশ্চিতরূপে (অর্যঃ) ইন্দ্রিয়-সমূহের বিজেতা স্বামী। (বিশ্বস্মাৎ০) পূর্ববৎ।

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