अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 18
ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
59
अ॒यमि॑न्द्र वृ॒षाक॑पिः॒ पर॑स्वन्तं ह॒तं वि॑दत्। अ॒सिं सू॒नां नवं॑ च॒रुमादे॑ध॒स्यान॒ आचि॑तं॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । वृषाक॑पि: । पर॑स्व॒न्तम् । ह॒तम् । वि॒दत् ॥ अ॒सिम् । सू॒नाम् । नव॑म् । च॒रुम् । आत् । एध॑स्य । अन॑: । आऽचि॑तम् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्। असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । इन्द्र । वृषाकपि: । परस्वन्तम् । हतम् । विदत् ॥ असिम् । सूनाम् । नवम् । चरुम् । आत् । एधस्य । अन: । आऽचितम् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (अयम्) इस (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (परस्वन्तम्) पालनेवाले व्यवहार को (हतम्) नाश किया हुआ (विदत्) पाया है, (आत्) तभी (नवम्) नवीन (चरुम्) स्थान [अर्थात् देश निकाला] [अथवा] (असिम्) तलवार, (सूनाम्) बध स्थान, और (एधस्य) इन्धन का (आचितम्) भरा हुआ (अनः) छकड़ा [पाया है], (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१८॥
भावार्थ
जो पापी आत्मा उपकारी व्यवस्था को तोड़े, उसको दण्ड रीति से ऐसा कष्ट भोगना चाहिये, जैसे कोई अपराधी देश से निकाला जावे, अथवा तलवार आदि शस्त्र से मारकर लकड़ी से भस्म किया जावे ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(अयम्) प्रसिद्धः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (वृषाकपिः) म० १। बलवान् चेष्टयिता जीवात्मा (परस्वन्तम्) पॄ पालनपूरणयोः-असुन्। पालनवन्तं व्यवहारम् (हतम्) हिंसितम् (विदत्) अविदत्। प्राप्तवान् (असिम्) खड्गम् (सूनाम्) षू क्षेपे-क्त, टाप्। प्राणिवधस्थानम् (नवम्) नवीनम् (चरुम्) चरस्थानम्। विवासनम् (आत्) अनन्तरम् (एधस्य) इन्धनस्य (अनः) शकटम् (आचितम्) पूर्णम्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
अ-पराधीनता
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो। आपका (अयम्) = यह पुत्र (वृषाकपिः) = वासनाओं को कम्पित करनेवाला और अतएव शक्तिशाली सन्तान (परस्वन्तम्) = पराधीन को-इन्द्रियों के अधीन हुए-हुए पुरुष को (हतं विदत्) = [विद् ज्ञाने]-मृत जानता है । इन्द्रियों की अधीनता [दासता] मृत्यु का ही कारण बनती है। इन्द्रियों को जीतकर ही हम आनन्दमय जीवन बिता सकते हैं। २. यह जितेन्द्रिय पुरुष (असिम्) = [अस् क्षेपणे] वासनाओं के दूर फेंकने को, (सुनाम) = [सू प्रेरणे] प्रभु की प्रेरणा को-इस प्रेरणा से ही तो यह निरन्तर वासनाओं को दूर करने के लिए यत्नशील होता है (नवं चरुम्) = [नु स्तुतौ, चर भक्षणे] वासनाओं को न उत्पन्न होने देने के लिए ही स्तुत्य भोजन को-राजस व तामस् भोजनों को छोड़कर सात्त्विक आहारों को और (आत्) = इनके बाद (ऎधस्य) = ज्ञानदीति के (आत्तिनम्) = समन्तात् त्यामिताले (अन:) = शरीर-रश को निबन्-माम करता है [विद् लाभे]।३. यह अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सबसे अधिक उत्कृष्ट हैं।
भावार्थ
इन्द्रियों की दासता विनाश का मार्ग है। इनको जीतकर ही हम शरीर-रथ को ज्ञानदीस बना पाते हैं।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र! (अयं वृषाकपिः) यह सूर्य, (परस्वन्तम्) दूरस्थ पृथिवी के जल को, (हतम्) ताड़ित और गतिमान् करके (विदत्) अन्तरिक्ष में विद्यमान कर देता है, (आत्) तत्पश्चात् सूर्य (आचितम्) संचित हुए मेघ को (एधस्य अनः) देदीप्यमान विद्युत् के मेघ रूपी शकट को (असिम्) उसके भूमि पर प्रक्षेपण को, (सूनाम्) नए उत्पादन को तथा (नवं चरुम्) भक्षण के योग्य नवान्न को (विदत्) प्राप्त कराता है। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।
टिप्पणी
[हतम्=हन् हिंसा, गति। सूर्य पहिले समुद्रस्थ जल को ताड़ित करता, फिर ताड़ित जल को गतिमान् कर उसे अन्तरिक्ष में विद्यमान करता है। असिम्=अस् क्षेपणे। सूनाम्=सू प्रसवे, उत्पत्तौ। चरुम्=यज्ञिय अन्न चावल, जौ आदि। चर भक्षणे।]
विषय
जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्र ! (अयम्) यह (वृषाकपिः) सुखों का हृदय में चर्षण करने और दुःख के कारणों को कंपा कर अपने से पृथक् कर देने में समर्थ आत्मा (परस्वन्तं) अपने भीतर बसे ‘मैं परमेश्वर से दूर हूं’ ऐसे भाव को अब (हतं विदत्) विनष्ट हुआ जाने। अब वह (असिं) दुखों के काटने वाले, तीव्र तलवार के समान ज्ञानवज्र को (सूनाम्) परब्रह्म की तरफ प्रेरणा करने वाली तीव्र बुद्धि और (नवं चरुम्) स्तुति योग्य तप या आचरण को और (एधस्य) तीव्र तेज के (आचितम्) पूर्ण सञ्चित (अनः) जीवन, इन सबको वह (विदत्) प्राप्त करे। क्योंकि (इन्द्रः) वह ईश्वर (विश्वस्मात् उत्तरः) सबसे उत्कृष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, lord omnipresent and omnipotent, let this Vrshakapi, lover of joyous showers and shaker of thoughts of evil, know and realise that the duality between the self and the super self is ended. Then he will attain the soul inspiring pranic energy, creative intelligence, new spirit of yajnic performance and full achievement of the saving light of divinity. Indra is supreme over all the world.
Translation
O Almighty God, may this soul like a sword attain the descrimation quelling ignorance, the freedom from the habitual hunting of organs towards their objects and stimulance in conscience and then he may realise that the idea that God being within is afar, has come to an end. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.
Translation
O Almighty God, may this soul like a sword attain the decimation quelling ignorance, the freedom from the habitual hunting of organs towards their objects and stimulance in conscience and then he may realize that the idea that God being within is afar, has come to an end. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.
Translation
O bliss-generating and evil-shaking soul, how many yojanas (i.e., 4 miles each) far away are those deserts and jungles, full of thorns? Surely come to thy own house, nearest to other houses (i.e., There is no use flying away from one’s own house into the jungles) Mighty Lord is Supreme over all.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(अयम्) प्रसिद्धः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (वृषाकपिः) म० १। बलवान् चेष्टयिता जीवात्मा (परस्वन्तम्) पॄ पालनपूरणयोः-असुन्। पालनवन्तं व्यवहारम् (हतम्) हिंसितम् (विदत्) अविदत्। प्राप्तवान् (असिम्) खड्गम् (सूनाम्) षू क्षेपे-क्त, टाप्। प्राणिवधस्थानम् (नवम्) नवीनम् (चरुम्) चरस्थानम्। विवासनम् (आत्) अनन्तरम् (एधस्य) इन्धनस्य (अनः) शकटम् (आचितम्) पूर्णम्। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (অয়ম্) এই (বৃষাকপিঃ) বৃষাকপি [দৃঢ় প্রচেষ্টাকারী জীবাত্মা] (পরস্বন্তম্) পালনকারী আচরণকে (হতম্) হত/নিহত (বিদৎ) প্রাপ্ত হয়, (আৎ) তখন (নবম্) নবীন (চরুম্) স্থান [অর্থাৎ দেশ ত্যাগ/নির্বাসন] [অথবা] (অসিম্) অসি/খড়্গ/অস্ত্র, (সূনাম্) প্রাণী বধ স্থান, এবং (এধস্য) ইন্ধন (আচিতম্) পূর্ণ (অনঃ) ঠেলাগাড়ি [প্রাপ্ত হয়], (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সব [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম ॥১৮॥
भावार्थ
যে পাপী আত্মা পরোপকার ব্যবস্থা ভঙ্গ করে, তাঁকে এমন শাস্তি ভোগ করতে হবে যেন কোনো অপরাধীকে দেশ থেকে বিতাড়িত করা হয়, অথবা অস্ত্র দিয়ে হত্যা করে পুড়িয়ে ছাই করা হয় ॥১৮॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! (অয়ং বৃষাকপিঃ) এই সূর্য, (পরস্বন্তম্) দূরস্থ পৃথিবীর জলকে, (হতম্) তাড়িত এবং গতিমান্ করে (বিদৎ) অন্তরিক্ষে বিদ্যমান করে দেয়, (আৎ) তৎপশ্চাৎ সূর্য (আচিতম্) সঞ্চিত মেঘকে (এধস্য অনঃ) দেদীপ্যমান বিদ্যুতের মেঘ রূপী শকটকে (অসিম্) উহার ভূমির ওপর প্রক্ষেপণকে, (সূনাম্) নতুন উৎপাদন তথা (নবং চরুম্) ভক্ষণ যোগ্য নবান্নের প্রতি (বিদৎ) প্রাপ্ত করায়। (বিশ্বস্মাৎ০ ) পূর্ববৎ।
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