अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 2
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
परा॒ हीन्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथिः॑। नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । हि। इ॒न्द्र॒ । धाव॑सि । वृ॒षाक॑पे: । अति॑ । व्यथि॑: ॥ नो इति॑ । अह॑ । प्र । वि॒न्द॒सि॒ । अ॒न्यत्र॑ । सोम॑ऽपीतये । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र: ॥१२६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । हि। इन्द्र । धावसि । वृषाकपे: । अति । व्यथि: ॥ नो इति । अह । प्र । विन्दसि । अन्यत्र । सोमऽपीतये । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर: ॥१२६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु-प्रासि के लिए आतुरता
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (हि) = निश्चय से जब (परा धावसि) = दूर होते हैं, अर्थात् जब वृषाकपि को आपका दर्शन नहीं होता तब आप (वृषाकपे:) = इस वृषाकपि के (अतिव्यथि:) = अति व्यथित करनेवाले होते हैं। प्रभु-दर्शन के अभाव में वृषाकपि आतुरता का अनुभव करता है। उसे प्रभु-दर्शन के बिना शान्ति कहाँ? २. प्रभु संकेत करते हुए कहते हैं कि (सोमपीतये) = तू सोम-रक्षण के लिए यत्नशील हो। यही प्रभु-दर्शन का साधन है। (अन्यत्र) = अन्यान्य बातों में-विषयवासनाओं में लगे रहने से (अह) = निश्चयपूर्वक तू नो (प्रविन्दसि) = उस प्रभु को नहीं प्राप्त करता है। प्रभु-प्राप्ति का मार्ग एक ही है- 'वीर्यरक्षण'। इस वीर्य की ऊर्ध्वगति से मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और उस समय सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा प्रभु का दर्शन होता है। ये (इन्द्रः) = प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं। इन्हीं को प्रास करने में आत्मकामता है।
भावार्थ - प्रभु-दर्शन के लिए हममें आतुरता हो और हम सोमपान-वीर्यरक्षण करते हुए अपने को प्रभु-दर्शन के योग्य बनाएँ।
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