अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 18
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
अ॒यमि॑न्द्र वृ॒षाक॑पिः॒ पर॑स्वन्तं ह॒तं वि॑दत्। अ॒सिं सू॒नां नवं॑ च॒रुमादे॑ध॒स्यान॒ आचि॑तं॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । वृषाक॑पि: । पर॑स्व॒न्तम् । ह॒तम् । वि॒दत् ॥ अ॒सिम् । सू॒नाम् । नव॑म् । च॒रुम् । आत् । एध॑स्य । अन॑: । आऽचि॑तम् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्। असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । इन्द्र । वृषाकपि: । परस्वन्तम् । हतम् । विदत् ॥ असिम् । सूनाम् । नवम् । चरुम् । आत् । एधस्य । अन: । आऽचितम् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 18
विषय - अ-पराधीनता
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो। आपका (अयम्) = यह पुत्र (वृषाकपिः) = वासनाओं को कम्पित करनेवाला और अतएव शक्तिशाली सन्तान (परस्वन्तम्) = पराधीन को-इन्द्रियों के अधीन हुए-हुए पुरुष को (हतं विदत्) = [विद् ज्ञाने]-मृत जानता है । इन्द्रियों की अधीनता [दासता] मृत्यु का ही कारण बनती है। इन्द्रियों को जीतकर ही हम आनन्दमय जीवन बिता सकते हैं। २. यह जितेन्द्रिय पुरुष (असिम्) = [अस् क्षेपणे] वासनाओं के दूर फेंकने को, (सुनाम) = [सू प्रेरणे] प्रभु की प्रेरणा को-इस प्रेरणा से ही तो यह निरन्तर वासनाओं को दूर करने के लिए यत्नशील होता है (नवं चरुम्) = [नु स्तुतौ, चर भक्षणे] वासनाओं को न उत्पन्न होने देने के लिए ही स्तुत्य भोजन को-राजस व तामस् भोजनों को छोड़कर सात्त्विक आहारों को और (आत्) = इनके बाद (ऎधस्य) = ज्ञानदीति के (आत्तिनम्) = समन्तात् त्यामिताले (अन:) = शरीर-रश को निबन्-माम करता है [विद् लाभे]।३. यह अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सबसे अधिक उत्कृष्ट हैं।
भावार्थ - इन्द्रियों की दासता विनाश का मार्ग है। इनको जीतकर ही हम शरीर-रथ को ज्ञानदीस बना पाते हैं।
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