अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 9
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते। उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वीरा॑म्ऽइव । माम् । अ॒यम् । श॒रारु॑: । अ॒भि । म॒न्य॒ते॒ ॥ उ॒त । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । वी॒रिणी॑ । इन्द्र॑ऽपत्नी । म॒रुत् स॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते। उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठअवीराम्ऽइव । माम् । अयम् । शरारु: । अभि । मन्यते ॥ उत । अहम् । अस्मि । वीरिणी । इन्द्रऽपत्नी । मरुत् सखा । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 9
विषय - प्रकृति 'अवीरा' नहीं, 'वीरिणी'है
पदार्थ -
१. "प्रकृति इतनी आकर्षक है फिर भी वृषाकपि उससे आकृष्ट नहीं हुआ' यह देखकर प्रकृति कुद्ध-सी होती है और कहती है कि (अयं शरारु:) = यह सब वासनाओं का संहार करनेवाला [प्रकृति की दृष्टि में शरारती] (माम्) = मुझे (अवीराम इव मन्यते) = अवीर, अवीर-सा मानता है। मैं अबीर थोड़े ही हूँ? (उत अहम्) = निश्चय से मैं तो (वीरिणी अस्मि) = उत्कृष्ट वीरता [पुत्र]-वाली हूँ। (इन्द्रपत्नी) = इन्द्र की पत्नी हूँ। (मरुत्सखा) = ये मरुत् [प्राण] मेरे मित्र हैं और यह तो सब कोई जानता ही है कि मेरा पति (इन्द्रः) = इन्द्र (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट है। ऐसी स्थिति में यह कैसे सहनीय हो सकता है कि यह वृषाकपि मेरा निरादर करे। २. यहाँ 'इन्द्र पत्नी' शब्द का प्रयोग करके प्रकृति स्वयं अपने पक्ष को शिथिल कर लेती है। वृषाकपि उसे इन्द्रपत्नी जानकर ही तो माता के रूप में देखता है। 'मरुत्सखा' शब्द भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इन मरुतों-प्राणों ने ही उसे वासनात्मक जगत् से ऊपर उठाकर प्रकृति के आकर्षण में फंसने से बचाना है। एवं, इन्द्राणी के मित्र ये मरुत् ही वृषाकपि को वृषाकपित्व प्राप्त कराते हैं। प्रकृति वीरिणी है, प्रकृति का पुत्र वृषाकपि भी वीर बनता है। यह प्रलोभन में फंसने से बचता है।
भावार्थ - प्रकृति वीरिणी है। उसका पुत्र वृषाकपि वीर बनकर अपनी माता का [प्रकृति का] सच्चा आदर करता है।
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