अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
इन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे पुरुहू॒तमुप॑ ब्रुवे। भरे॑षु॒ वाज॑सातये ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ ॥ भरे॑षु । वाज॑ऽसातये ॥१९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं वृत्राय हन्तवे पुरुहूतमुप ब्रुवे। भरेषु वाजसातये ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । वृत्राय । हन्तवे । पुरुऽहूतम् । उप । ब्रुवे ॥ भरेषु । वाजऽसातये ॥१९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
विषय - भरेषु वाजसातये
पदार्थ -
१. (पुरुहूतम्) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी उस (इन्द्रम्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (वृत्राय हन्तवे) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के विनाश के लिए (उपबुवे) = पुकारता हूँ। २. मैं उस प्रभु को (भरेष) = संग्नामों में वाजसातये शक्ति की प्राप्ति के निमित्त पुकारता है। प्रभु ही शक्ति देते हैं और उपासक को संग्राम में विजयी बनाते हैं।
भावार्थ - हम 'पुरुहूत इन्द्र' की आराधना करें। ये प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराएंगे। इस शक्ति के द्वारा हम संग्रामों में विजय प्राप्त करेंगे और ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट कर पाएँगे।
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