अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
द्यु॒म्नेषु॑ पृत॒नाज्ये॑ पृत्सु॒तूर्षु॒ श्रवः॑सु च। इन्द्र॒ साक्ष्वा॒भिमा॑तिषु ॥
स्वर सहित पद पाठद्यु॒म्नेषु॑ । पृ॒त॒नाज्ये॑ । पृ॒त्सु॒तूर्षु॑ । अव॑:ऽसु । च॒ ॥ इन्द्र॑ । साक्ष्व॑ । अ॒भिऽमा॑तिषु ॥१९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
द्युम्नेषु पृतनाज्ये पृत्सुतूर्षु श्रवःसु च। इन्द्र साक्ष्वाभिमातिषु ॥
स्वर रहित पद पाठद्युम्नेषु । पृतनाज्ये । पृत्सुतूर्षु । अव:ऽसु । च ॥ इन्द्र । साक्ष्व । अभिऽमातिषु ॥१९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
विषय - अभिमातिषु साश्व
पदार्थ -
१. (घुम्नेषु) = द्योतमान धनों की प्राप्ति के समय, (पृतनाग्ये) = [पृतनासु प्रजनं तर्तव्यासु च] सेनाओं की चहल-पहलवाले रणांगणों में, (पृत्सु तूर्षु) = [पृतनासु तर्तव्यासु च] सेनाओं के पराभव के समय (च) = और (श्रवःसु) = कीर्तियों की प्राप्ति के समय, हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! साक्ष्व आप हमारे साथ होइए [षच समवाये]। आपने ही तो धन-विजय व कीर्ति को प्राप्त कराना है। २. (अभिमातिषु) = [पापेषु हन्तव्येषु] अभिमान आदि पापों के विनाश के समय आप (साक्ष्व) = हमारे साथ होइए-आपके द्वारा ही हम पाप का विनाश कर सकेंगे।
भावार्थ - प्रभु ही हमें धन-विजय व कीर्ति प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। अगले सूक्त के प्रथम चार मन्त्रों के ऋषि भी 'विश्वामित्र' ही हैं। पिछले तीन में ऋषि 'गृत्समदः' हैं-प्रभु-स्तवन करते है [गृणाति] और आनन्द का अनुभव करते हैं -
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