अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
वाजे॑षु सास॒हिर्भ॑व॒ त्वामी॑महे शतक्रतो। इन्द्र॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठवाजे॑षु । स॒स॒हि: । भ॒व॒ । त्वाम् । ई॒म॒हे॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो ॥ इन्द्र॑ । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे ॥१९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजेषु सासहिर्भव त्वामीमहे शतक्रतो। इन्द्र वृत्राय हन्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठवाजेषु । ससहि: । भव । त्वाम् । ईमहे । शतक्रतो इति शतक्रतो ॥ इन्द्र । वृत्राय । हन्तवे ॥१९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 19; मन्त्र » 6
विषय - वाजेषु सासहिः
पदार्थ -
१. हे (शतक्रतो) = अनन्तशक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो! आप (वाजेषु) = संग्रामों में (सासहिः) = शत्रुओं का मर्षण [अभिभव] करनेवाले (भव) = होइए। (त्वाम ईमहे) = हम आपसे ही याचना करते हैं। आप ही वस्तुत: इन शत्रुओं का पराभव कर सकते हैं। २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (वृत्राय हन्तवे) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के विनाश के लिए हम आपको पुकराते हैं-आप से ही याचना करते हैं।
भावार्थ - संग्रामों में प्रभु ही हमारे शत्रुओं का अभिभव करते हैं।
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